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मोन पहन
अनेकान्त
परमागस्य बीजं निषिद्ध जात्यन्धसिन्धुरविधानम्। सकलनयविलसितानां विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष १८ किरण-२
बीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६१, वि० सं० २०२२
सन् १९६५
सुपार्श्व-जिन-स्तुति
स्तवाने कोपने चैव समानो यन्न पावकः । भवाने कोपि नेतेव त्वमायः सुपार्श्वकः ॥२९॥
-समन्तभद्राचार्य
अर्थ-हे भगवन् ! सुपार्श्वनाथ ! आप, स्तुति करने वाले प्रोर निन्दा करने वाले दोनों के विषय में समान हैं-राग-द्वेष से रहित हैं ! सबको पवित्र करने वाले हैं। सत्रको हित का अदेश देकर कर्म-बन्धन से छुटाने वाले हैं । अतः आप एक असहाय (दूसरे पक्ष में प्रधान) होने पर भी नेता की तरह सबके द्वारा प्राश्रयणीय हैं-सेवनीय हैं।
भावार्थ-जिस तरह एक ही नेता अनेक भादमियों को सम्यक् मार्ग का प्रदर्शन कर इष्ट स्थान पर पहुंचा देता है उसी तरह आप भी अनेक जीवों को मोक्ष मार्ग बतला कर इष्ट स्थान पर पहुँचा देते हैं, स्वयं भी पहुंचे हैं। प्रतः आप हम सबकी श्रद्धा और भक्ति के भाजन हैं ॥२६॥