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________________ मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य में शान्ताभक्ति २०७ ताकत । जिसमें वह नहीं उस पर भगवान की कृपा नहीं को प्राचार्य हेमचन्द्र का पूर्ण प्राशीर्वाद प्राप्त था। होती। भव्यत्त्व उपाजित करना अनिवार्य है। यदि हेमचन्द्र ने बिना तरतमांश के उस देव को नमस्कार किया, भगवान के नाम को कोई भव्य जीव लेता है तो उसके जिसके रागादिक दोष क्षय को प्राप्त हो गये हों, फिर भवसागर तरने में कोई कमी नहीं रहती। इस भव्यत्त्व वह देव ब्रह्मा, विष्णु, हर या जिन कोई भी हो। उनका को वैष्णव और जैन दोनों ही कवियों ने स्वीकार एक श्लोक हैकिया। "भवबीजांकुरजनना रागापाः यमुपागता यस्य । भारतीय भक्ति परम्परा की एक प्रवृत्ति रही है कि ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै । अपने आराध्य की महत्ता दिखाने के लिए अन्य देवो को यत्र तत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्यभिषया यया तया। छोटा दिखाया जाये । तुलसी के गम और सूर के कृष्ण बीतदोपकलुषः स चंद्भवानेक एव भगवन्नमोस्तु ते ॥"३ की ब्रह्मा, शिव, सनक, स्यन्दन ग्रादि सभी देव याराधना इसी भांति एक अन्य जैन भक्त कवि देवी पद्मावती करते है । तुलसी ने यहाँ तक लिखा है कि जो स्वय भीख की पागधना करने को उद्यत हा तो अन्य देवियों की माँगते है वे भक्तों की मनोकामनायो को कैसे पूरा करेंगे। निन्दा न कर मका। उसने कहा कि देवी पद्मावती ही सूरदास ने अन्य देवों से भिक्षा मांगने को रसना का व्यर्थ सुगमता मे तारा, शैवागम में गौरी, कौलिक शामन मे प्रयास कहा ।१ तुलसी का कथन है कि अन्य देव माया वज्रा और सांख्यागम में प्रकृति कहलाती है। उनमें कोई से विवश है, उनकी शरण में जाना व्यर्थ है ।२ तुलमी को अन्तर नहीं है। कोई छोटी-बडी नहीं है। कोई महान दृष्टि में राम ही शील, शक्ति, और सौन्दर्य के चरम लघ नहीं है। मव समान है। सब की शक्तियाँ समान अधिष्ठाता है। कृष्ण भी वैसे नहीं हो सकते । गूर का हैं। उस मां भारती से समस्त विश्व व्याप्त है। ऐसा समूचा 'भ्रमर गीत' निर्गुण ब्रह्म के खण्डन में ही बपा-मा अाराधक ही सच्चा भक्त है। जिसमे दूगगे के प्रति निन्दा प्रतीत होता है जन कवियो ने भी सिवा जिनन्द्र के अन्य और कटता का भाव मा गया, वह सात्त्विकता की बात किसी को पाराध्य नहीं माना। मैंन अपने ग्रन्थ 'जैन नहीं कर सकता। उमका भाव दूपित है। जिसने भक्ति हिंदी भक्ति काव्य और कवि' में भक्ति-धारा की इम क्षेत्र में भी पार्टी बन्दी की बात की वह भक्त नहीं और प्रवृत्ति का समर्थन किया है। मेरा तर्क है कि भक्त चाहे कुछ हो।सा व्यक्ति शान्ति का हामी नहीं हो कवियों ने यह काम प्राराध्य में एकनिष्ठ भाव जगान के मकना । उमका काम व्यथं होगा और पागधना लिए ही किया होगा। किन्तु साथ ही मैंने यह भी स्वीकार निष्फल । वीतगगियों को भक्ति पूर्ण रूप से हिमक किया है कि इस 'एकनिष्ठता' की प्रोट मे वैष्णव और होनी चाहिए यदि ऐमी नहीं हुई तो वह भक्त के जैन दोनो ही कड़वाहट नहीं रोक सके। दोनो ने शाली- भावों को विकृति ही माननी पड़ेगी। किन्तु इम क्षेत्र नता का उल्लंघन किया। फिर भी अपेक्षाकृत जनकवि में बहुत हद तक अहिमा को प्रश्रय मिला, यह मिथ्या अधिक उदार रहे। उनमें अनेक ने तो पूर्ण उदारता- नही है। उपर्यक्त श्लोक हैबरती। यह इतिहास-प्रसिद्ध बात है कि प्रभास पट्टन "तारा त्वं सगतागमे, भगवती गौरीति शैवागमे । के सोमनाथ के मन्दिर के उद्वार मे सम्राट् कुमारपाल वजा कौलिकशासने जिनमते पद्मावती विश्रुता ॥ १. "जांचक जांचक कह जाँच । गायत्री श्रुतिशालिनी प्रकृतिरित्युक्तासि सांख्यागमे । जो जाँच तो रसना हारी॥" मातभरिति ! कि प्रभूत भणितं, व्याप्त समस्तं त्वया ॥"४ सूर सागर, प्रथम स्कंध, ३४वा पद, पृ० ३० ३. प्राचार्य हमचन्द्र का श्लोक, देखिए मेग ग्रन्थ 'हिन्दी २. "देव दनुज मुनि नाग मनुज सब माया-विबम विचारे। जैन भक्ति काव्य और कवि', पहला अध्याय १० १२ तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु, कहा अपुन पौ हारे ।।" ४. पद्मावती स्तोत्र, २०वा श्लोक, भैरव पद्मावती कल्प, विनय पत्रिका, पूर्वार्ष, १०१वा पद, पृ० १९२। अहमदाबाद, परिशिष्ट ५, पृष्ट २८ ।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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