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अनेकान्त
भगवान के नाममें अमित बल स्वीकार करती हैं। सच्चे नातर के भवधि में परिहै भयो चहेंगति दौरा। हृदय से लिया गया नाम कभी निष्फल नहीं जाता । उससे विसभूषण पदपंकज राच्यो ज्यों कमलन बिच भौंरा॥४ विपत्तियां दूर हो जाती हैं । बेचैन, व्याकुल और तड़फता 'भैया' भगवतीदास ने 'ब्रह्मविलास' में भगवदनाम मन शांति का अनुभव करता है यह केवल अतिशयोक्ति की महिमा का नानाप्रकार से विवेचन किया है। उनकी नहीं है कि गणिका, गज और अजामिल नाम लेने मात्र मान्यता है कि "भगवान का नाम कल्पवृक्ष, कामधेनु, से तर गए थे। अवश्य ही उसने उनके हृदय में परम चिंतामणि पौर पारस के समान है। उससे इस जीव की शांति को जन्म दिया होगा। परम शांति ही परम पद इच्छायें भरती है। कामनायें पूर्ण होती हैं। चिंता दूर है-मोक्ष है, संसार से तिरना है। यह बात केवल तुलसी हो जाती है और दारिद्रय डर जाता है। नाम एक प्रकार और मूर ने ही नहीं लिखी, जैन कवि भी पीछे नहीं रहे। का अमृत है, जिसके पीने से जग गेग नष्ट हो जाता है। महा कवि मनराम ने लिखा, "महन्त के नाम से पाठ अर्थात् मृत्यु की आशंका नहीं रह पाती। यह जीव मत कम रूपी शत्र नष्ट हो जाते हैं।"१ यशोविजय जी का से अमृत की ओर बढ़ जाता है। मौत का भय ही दुख कथन है, "अरे यो चेतन ! तू इस मंसार के भ्रम में क्यों है । उसके दूर होने पर सुख स्वतः प्राप्त हो जाता है। फंसा है। भगवान जिनेन्द्र के नाम का भजन कर । सद्- ऐसा सुख जो क्षीण नही होता। इसे ही शाश्वत आनन्द गुरु ने भी भगवान का नाम जपने की बात कही है।"२ कहते हैं । कितु वीतरागताकी ओर बढ़ रहा है।"५ ऐमी द्यानतगय का अटूट विश्वाम है, "रे मन ! भज दीन- शतं तुलसी ने 'ज्ञान-भक्ति विवेचन' में भी लगायी है ।६ दयाल । जाके नाम लेत इक छिन में, कटै कोट अघ- उनकी दृष्टि में हर कोई भगवान का नाम नही ले जाल ।"३ कवि विश्वभूषण की दृष्टि में इम बौर जीव मकता। पहले उसमे नाम लेने की पात्रता चाहिए। को सदैव जिनेन्द्र का नाम लेना चाहिए। यदि यह परम इसका अर्थ यह भी है कि पहले मन का भगवान की ओर तत्त्व प्राप्त करना चाहता है, तो तन की पोर से उदामीन उन्मुग्व होना आवश्यक है। ऐसा हुए बिना नाम लेने की हो जाये। यदि ऐसा नही करेगा तो भव-समुद्र में गिर बात नही उठती। उसके लिए एक जैन परिभाषिक शब्द जायगा और उसे चहुँगति मे घूमना होगा। विश्वभूपण है 'भव्य' उमका तात्पर्य है-भवसागर से तरने की भगवान के पदपकज में इस भांति राँच गए है। जैसे -
४. पद संग्रह नं० ५८, दि० जैन मंदिर, बड़ौत, कमलों में भौंरा
पन्ना ४८ । "जिन नाम ले रे बौरा, जिन नाम लरे बौरा। ५ "तेरो नाम कल्प वृक्ष इच्छा को न राखे डर, जोत परम तत्त्व कौ चाहै तौ तन को लगे न जौरा॥ तेगे नाम कामधेनु कामना हरत है ।
तेरो नाम चिन्तामन चिन्ता को न राखे पास,
तेरो नाम पारस सो दारिद डरत है ।। १. "करमादिक अग्नि को हर अरिहंत नाम,
तेरो नाम अमृत पिये ते जरा गेग जाय, मिद्ध कर काज सब सिद्ध को भजन है।"
तेरो नाम सूख मूल दुख को दरत है। मनराम विलाम, मनगम रचित, मन्दिर ठोलियान,
तेरो नाम वीतराग धरै उर वीतरागी, जयपूर की हस्तलिखित प्रति।
भव्य तोहि पाय भवसागर तरत है।" २. 'जिनवर नामसार भज प्रातम, कहा भरम ससारे ।
सूपथ-कुपंथ पचीसिका, ब्रह्मविलास, भैय्या भगवतीमुगुरु वचन प्रतीत भये तब, प्रानन्द धन उपगारे।।"
दास, पृ० १८०। प्रानन्दधन प्रष्टपदी, प्रानन्दघन, पानन्दघन बहत्तरी,
सोलार रायचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई।
पाव भगति मनि सब सुख खानी॥" ३. द्यानतपद संग्रह, कलकत्ता, ६६वा पद, प० २८ । देखिये रामचरित मानस, जान भक्ति विवेचन ।