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________________ मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य में शान्ताभक्ति २०५ संसार के मालिक हो। चेतन को यदि यह स्मरण हो दष्टि से उन्हें श्री पंत जी का पूर्व संस्करण ही कहा जा जाये कि वह स्वयं भगवान है तो मंसार के सभी सकता है। उन्होने एक जगह लिखा है, "हे लाल ! दिनदुख स्वतः उपशम हो जायें-जहाँ के तहाँ पढे दिन प्राव घटती है, जैसे अंजली का जल शनैः शनैः रिस रहें। संसार में जन्म लेने के साथ ही यह जीव विस्म- कर नितांत चू जाता है। संसार की कोई वस्तु स्थिर रणशील मनोवेग साथ लाता है। कस्तूरी मृग को यह नही है, इसे मन में भली भांति समझ ले । तूने अपना विदित नहीं रहता कि वह सुगन्धि उसकी नाभि में मौजद बालपन खेल में खो दिया । जवानी मस्ती मे बिता दी। है, जिसके लिए वह भटकता फिरता है। मन्दिर, मस्जिद इतने राग-रंगों में मस्त रहा कि वद्धावस्था में शक्ति और कावे में परमात्मा को ढूढ़नेवाला यह जीव नही बिलकुल क्षीण हो गई। यदि तूने यह सोचा था कि वृद्ध जानता कि वह तो उसके भीतर ही रहता है। इसीलिए होने पर जप-तप कर लूंगा, तो वह तेरा अनुमान प्रसत्य जीव अज्ञानी कहलाता है। इसीलिए वह सांसारिक पाक- की छाया ही थी। तू मंसार के उन पदार्थों में तल्लीन लतामों में व्याकूल बना रहता है। उसकी शांति का सबसे है, जिनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है। वे सेमर के बड़ा उपाय है कि वह अपने को पहचाने । पाण्डे रूपचन्द्र फूल की तरह झूठ हैं। प्रातः के प्रोसकणों की भांति कोत्र ने लिखा है ही विलुप्त हो जायेगे।" वे पंक्तियाँ हैअपनो पद न विचारहू, अहो जगत के राय। दिन दिन प्राव घटं है रे लाल, भव वन छायक हो रहे, शिवपुर सुधि विसराय॥ ज्यों अंजली को नीर मन माहि लारे। भव-भव भरमत ही तुम्हें, बीतो काल अनादि। कीयो जाय ठोकर लरे लाल, अब किन घरहिं संवारहू, कत मुख देखत वादि। घिरता नहीं संसार मन माहि ला रे॥ परम प्रतीन्द्रिय सुख सुनो, तुमहि गयो सुलझाय । बालपणा षोयो ध्याल मेरे लाल, किंचित इन्द्रिय सुख लगे, बिषयन रहे लुभाय ॥ ज्वांणपों उनमान मन माहि ला रे। विषयन सेवत हो भले, तृष्णा तो न बुझाय। वृद्धपणो सात घटी रे लाल, जिया जल खारो पीवत, बाढ़े तिसप्रधिकाय ॥१ करि करि नाना रंगि मन माहिलारे। श्री सुमित्रानन्दन पत ने परिवर्तन' में लिखा है, समकित स्यों परच्यो करी रे लाल, "मंदती नयन मृत्यु की रात, खोलती नवजीवन की प्रात, मिथ्या संगि निवारि मन माहि लारे। शिशिर की सर्व प्रलयकर बात, बीज बोती अज्ञात ।" ज्यों सुष पार्य प्रति घणा रे लाल, उनका तात्पर्य है कि मौत में जन्म और जन्म में मोत मनोहर कहैय विचारि मन माहि ला रे ॥२ छिपी है। यह ससार अस्थिर है। जीवन अमर नही है। भारतीय मन सदैव भक्ति-धारा से सिञ्चित होना संसार के सुख चिन्तन कही हैं। श्री पंत जी की कविता रहा उनके जन्म-जन्म के संस्कार भक्ति के सांच में का यह स्वर जैन 'टोन' है। यदि यह कहा जाय कि पत ढले हैं । हो सकता है कि उमकी विधाये विकृत दिशा की जी की अन्य कवितामों का आध्यात्मिक स्वर जैन परम्पग मोर मृड गई हों। किन्तु मूल में विराजी भक्ति किचिन्मात्र से हू-बहू मिलता-जुलता है, तो अन्युक्ति न होगी। जैन भी इधर से उधर नही हुई, यह सच है। एक विलायत सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में उन सबका अध्ययन होना पाव- से लौटा भारतीय भी मन से भक्त ही होता है। विज्ञान श्यक है। अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ (१७०५) में की प्रयोगशालायों में डूबा वैज्ञानिक भगवान को निरस्त एक जैन कवि पं. मनोहरदास हुए है। भावधाग को नहीं कर पाता । माधुनिकता के पैरोकार परमपिता का नाम लेते देखे गये हैं। वैदिक और श्रमण दोनो परम्पराये १. देखिए पाण्डं रूपचन्द्र रचित परमार्थी दोहा शतक । यह 'रूपचन्द्र शतक' के नाम से जन हितपी, भाग ६, २. देखिए सुगुरुगीप, पं. मनोहरदास रचित, गुटका नं. अंक ५.६ में प्रकाशित हो चुका है। ५४, वेन न० २७२, जैन मंदिर, बड़ौत (मेरठ)।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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