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________________ २०४ अनेकान्त और कमख्वाब के गहों पर पड़े लोगों को भी बेचनी से और रूप धारण कर नृत्य करता है। नृत्य करने की बात तड़फते देखा गया है। दूसरी पोर गरीबी तो नागिन-जैसी सूरदास ने भी, 'अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल' शीर्षक पद जहरीली होती ही है। भूधरदास की यह पंक्ति "कहूँ न में भली भाँति स्पष्ट की है। यहाँ नृत्य का अर्थ है कि सुख संमार में सब जग देख्यो छान" देश-काल से परे एक जीव का संसार के चक्कर में फंसना और तज्जन्य सुखचिरंतन तथ्य है। इहलौकिक प्राकुलता से संतप्त यह दु:ख भोगना। वह जब तक आवागमन के चक्कर में जीव भगवान की शरण में पहुंचता है और जो शाति फंसा है, उमे नाचना पड़ेगा। यदि वह हर्प और शोक को मिलनी है, वह मानो सुधाकर का बरसना ही है, चिता- समान समझकर सहज रूप में उनसे उदासीन हो जावे तो मणिरत्न और नवनिधि का प्राप्त करना ही है। उसे वह ज्ञानी कहलाये और शांति का अनुभव करे। गीता ऐमा प्रतीत होता है जैसे प्रागे कल्पतरु लगा हुआ है। का यह वाक्य 'सुख दुःम्वे समे कृत्वा' जैन-शासन में पूर्ण उमकी अभिलापायें पूर्ण हो जाती हैं। अभिलाषाओं के रूप से प्रतिष्टित है। कवि त्रिभुवनचन्द्र (१७वीं शताब्दी) पूर्ण होने का अर्थ है कि मांसारिक गेग और संताप सदा- ने उसका सुन्दर निरूपण किया हैसदा के लिए पशम हो जाते हैं। फिर वह जिम सुख जहाँ है संयोग तहाँ वियोग सही, का अनुभव करता है वह कभी क्षीण नहीं होता और जहाँ है जनम तहाँ मरण को बास है। उसमे अनस्यत शांति भी कभी घटती बढ़तं। नही। कवि संपति विपति वोऊ एकही भवनदासी कुमुदचन्द्र की यह विनती शांतरस की प्रतीक है जहाँ बस सुष तहाँ दुष को विलास है। प्रभु पायं लागौं करू सेव थारी जगत में बार-बार फिर नाना परकार, तुम सुन लो परज श्री जिनराज हमारी। करम अवस्था झूठो थिरता की प्रास है। घणों कस्ट करि देव जिनराज पाम्यो नट कैसे भेष और रूप होंहि तातै हसबै संसारनों दुख वाम्यो। हरष न सोग ग्याता सहज उदास है ॥२ जब श्री जिनराजनो रूप बरस्यौ। ( संसार में पानेवाला यह जीव एक महार्घ तत्त्व से जब लोचना सुष सुषाधार वरस्यौ ।। सम्बन्धित है। वह है उसका निजी चेतन । उसमें परमामलहया रतनचिता नवनिधि पाई । शक्ति होती है। वह अपने प्रात्मप्रकाश से सदैव प्रदीप्त मानौं प्रागणे कलपतर प्राजि प्रायो। रहता है। किंतु यह जीव उसे भूल जाता है । इसी कारण मनवांछित दान जिनराज पायो। उमे संसार मे नृत्य करने के लिए बाध्य होना पड़ता है । गयो रोग संताप मोहि सरव त्यागी ॥१ इस प्रकार भवन में 'भरमते-भरमते' उसे अनादिकाल बीत जाता है। उसे सम्बोधन कर पाण्डे रुपचन्द ने लिखा हैसंसार की परिवर्तनशील दशा के अकन मे जैन कवि अहो जगत के राय! तुम क्षणिक इन्द्रिय-सुख में लगे हो, अनुपम है। परिवर्तनशीलता का अर्थ है-क्षणिकता, विषयों में लुभा रहे हो। तुम्हारी तृष्णा कभी बुझती नहीं। विनश्वरता । संसार का यह स्वभाव है। अत यदि यहाँ विषयों का जितना अधिक सेवन करते हो, तृष्णा उतनी संयोग मिलने पर कोई प्रानन्द-मग्न और वियोग होने पर। ___ ही बढ़ती है, जैसे खारा जल पीने से प्यास और तीव्र ही दुःख-संतप्त होता है तो वह अज्ञानी है। यहाँ तो जन्म होती है । तुम व्यर्थही इन दुखो को भेल रहे हो । अपने घर मरण, सपत्ति-विपत्ति, सुख-दुःख चिरसहचर है। संसार को क्यों नही मंभालते। अर्थात् तुम्हारा घर शिवपुर है। तुम में यह जीव नाना प्रकार से विविध अवस्थाओं को भोगता शिवरूप ही हो। तुम अपना-पर भूल गये हो। तुम इस हुमा चक्कर लगाता है। वह नट की भांति नाना वैष २. अनित्यपचाशत (पाण्डुलिपि), लेखनकाल वि० सं० १. देखिए गुटका नं० १३३, लेखनकाल वि०सं० १७७६, १६५२, गुटका नं. ३५, लूणकरण जी का मंदिर, मदिर ठोलियान, जयपुर। जयपुर।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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