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मध्यकालीन जैन हिन्दी काग्य में शान्ताभक्ति
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दुःख दूर हो जाता है ।"१ यहाँ बादल से झरने वाली हैं। उन्हें जन्म से ही पूर्व संस्कार के रूप में वीतरागता शीतलता परम शांति ही है। शांति को ही सुख कहते हैं मिलती है। उसी स्वर में वे पलते, बढ़ते, भोग-भोगते प्रोर वह भगवान नेमिनाथ के सेवकों को प्राप्त होती ही पौर दीक्षा लेते है । कभी विलासों में तैरते-उतराते, कभी है। द्यानतराय की दृष्टि में भी राग-द्वेष ही प्रशाति है राज्यों का संचालन करते और कभी शत्रुओं को पराजित और उनके मिट जाने से ही "जियग मुख पावेगा'. अर्थात करते; किन्तु वह स्वर सदैव पवन की भौति प्राणों में उसको शांति मिलेगी। परहंत का स्मरण करने से राग- भिदा रहता। अवसर पाते ही वह उन्हें वन-पथ पर ले द्वप विलीन हो जाते है, अत: उनका स्मरण ही सर्वोत्तम होडता। चिंताएं स्वत: पीछे रह जातीं। वीतरागता है । द्यानतराय भी अपने बावरे मन को सम्बोधन करते शक्लध्यान के रूप में फूल उटती। नासिका के अग्र भाग हुए कहते है, "हे बावरे मन ! प्रहत का स्मरण कर। पर टिकी दष्टि 'चिंताभिनिरोध' को स्पष्ट कहती। वह ख्याति, लाभ और पूजा को छोड़कर अपने अतर में प्रभु एकाग्रता की बात कहती ही रहती। और फिर मुख पर की लौ लगा। तू नर-भव प्राप्त करके भी उमे व्यर्थ में प्रानन्द का अनवरत प्रकाश छिटक उठता। अनुभव रस ही खो रहा है और विषय-भोगों को प्रेरणा दे-देकर बढा अपनी परमावस्था में प्रकट हो जाता। उसकी झलक से रहा है। प्राणो के जाने पर हे मानव ! तू पछतायेगा। तीर्थकर का सौदर्य अलौकिक रूप को जन्म देता, जिसे तेरी पायु क्षरण-क्षण कम हो रही है। युवती के शरीर, इन्द्र, सूर्य और चन्द्र जैसे रूपवन्तों का गर्व विगलित हो धन, सुत, मित्र. पग्जिन, गज, तुरंग और ग्थ में तेग जो बह जाता। यह सच है कि उन परमशांति का अनुभव चाव है, वह ठीक नही है। ये सामाग्कि पदार्थ स्वप्न की करते तीर्थकर के दर्शन मे 'अशुभ' नामधारी कोई कर्म माया की भॉति है, और आँख मीचते-मीचते समाप्त हो टिक नही मकता था। फिर यदि उनके स्मरण से अनहद जाते है। अभी समय है, तू भगवान् का ध्यान कर ले बाजा बज उठता हो तो ग़लत क्या है। जगराम ने और मंगल-गीत गा ले। और अधिक कडों तक कहा लिखा हैजाये फिर उपाय करने पर भी सध नही सकेगा।"२ निरखि मन मूरति कंसी राज। __ शुक्लध्यान में निरत तीर्थकर शांति के प्रतीक होते तीर्थकर यह ध्यान करत हैं, परमातम पद काजं । है। उनमें से सभी प्रकार की बेचैनियाँ निकल चुकी होती नासा प्रग्र दृष्टि की धार, मुख मुलकित मा गाज। १ "अब हम नेमिजी की शरन ।
अनुभव रस झलकत मानौ, ऐसा प्रासन शुद्ध विराज। पोर ठौर न मन लगत है, छांडि प्रभु के शरन ॥१॥
अद्भुत रूप अनूपम महिमा, तीन लोक में छाजं । सकल भवि-अघ-दहन बारिद, विरद ताग्न-तरन ।
जाकी छवि देखत इन्द्रादिक, चन्द्र सूर्य गण लाजं । इन्द्र चंद्र फनिन्द ध्या, पाय सुख दुःख हरन ॥शा"
परि अनुराग विलोकत जाकों, प्रशभ करम तजि भाज । द्यानतपदसग्रह, कलकत्ता, पहला पद, पृ० २ ।
जो जगराम बनं सुमिरन तौ, अनहद बाजा बाजे ॥३ २. अरहन्त सुमर मन बावरे !
संमार के दुःखों से त्रस्त यह जीव शाति चाहता है। ख्याति लाभ पूजा तजि भाई, अन्तर प्रभु लो लाबरे। यहाँ शांति का प्रथं शाश्वत शाति से है। अर्थात् वैभव नर भव पाय प्रकारथ खोव, विषय भोग जु बढाव रे। मौर निर्धनता दोनों ही में उमे शांति नहीं मिलती। प्राण गये पछित है मनवा, छिन छिन छीज प्राव रे । अथवा वह सांसारिक वैभवों से उत्पन्न सुख-विलास को युवती तन धन मृत मित परिजन, गज तुरग रथ चाव रे। शांति नही मानता। राग चाहे मम्पत्ति से सम्बन्धित हो यह संसार सुपन की माया, पाख मीचि दिखराव रे। या पुत्र-पौत्रादिक से, सदैव दाहकारी ही होता है। मखमल थ्याव-ध्याव रे प्रब है दावरे, नाही मगल गाव रे। - द्यानत बहुत कहाँ लौं कहिये, फेर न कछु उपाव रे। ३. पद मंग्रह न० ४६२, पत्र ७६, वधीचन्द जी का
द्यानत पद संग्रह, ७०वा पद, पृष्ठ २६-३०। मदिर जयपुर।