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________________ २०२ अनेकान्त छोड़ दे। क्षण-क्षण पर तेरे बंध बढ़ते जायेंगे, और तेरा एक वृद्ध पुरुष की दृष्टि घट गयी है, तन की छबि पल-पल ऐसा भारी हो जायगा, जैसे भीगने पर काली पलट चकी है, गति बंक हो गयी है और कमर झुक गयी कमरी ।" भूधरदास ने एक दूसरे पद में परिवर्तन- है। उसकी घर वाली भी रूठ चुकी है, और वह अत्यधिक शीलता का सुन्दर दृश्य अंकित किया है। उन्होंने कहा, रंक होकर पलंग से लग गया है। उसकी नार (गर्दन) "इस संसार में एक अजब तमाशा हो रहा है, जिसका कांप रही है और मुंह से लार चू रही है। उसके सब अस्तित्व-काल स्वप्न की भांति है, अर्थात् यह तमाशा अंग-उपांग पुराने हो गये हैं, किन्तु हृदय में तृष्णा ने और स्वप्न की तरह शीघ्र ही समाप्त भी हो जायगा । एक के भी नवीन रूप धारण किया है। जब मनुष्य की मौत घर में मन की प्राशा के पूर्ण हो जाने से मगल-गीत होते माती है, तो उसने संसार में रच-पच के जो कुछ किया हैं, और दूसरे घर में किसी के वियोग के कारण नैन है, सब कुछ यहाँ ही पड़ा रह जाता है। भूधरदास जी ने निराशा मे भर-भर कर रोते है । जो तेज तुरंगों पर चढ़ कहा है, "तीव्रगामी तुरंग, सुन्दर रगों से रगे हुए रथ, कर चलते थे, और खासा तथा मलमल पहनते थे, वे ही ऊँचे-ऊंचे मन मतग, दास और खवास, गगनचुम्बी अट्टादूसरे क्षण नगे होकर फिरते है, और उनको दिलासा देन लिकाएँ और करोड़ों की सम्पत्ति से भरे हुए कोश, इन वाला भी कोई दिखाई नही देता । प्रातः ही जो राजतस्त मब को यह नर अत में छोड़ कर चला जाता है। प्रासाद पर बैठा हा प्रसन्न-बदन था, ठीक दोपहर के समय उसे खड़े-के-खडे ही रह जाते हैं, काम यहाँ ही पड़े रहते हैं, ही उदास होकर वन में जाकर निवास करना पड़ा। तन धन-सम्पत्ति भी यहां ही डली रहती है और घर भी यहाँ और धन अत्यधिक अस्थिर है, जैसे पानी का बताशा। ही धरे रह जाते हैं।" अधरदास जी कहते है कि इनका जो गर्व करता है उसके "तेज तुरंग सुरंग भले रथ, मत्त मतंग उतग खरे ही। जन्म को धिक्कार है ।२" यह मनुष्य मूर्ख है, देखते हुए। दास खबास प्रवास अटा, धन जोर करोरन कोश भरे हो। भी अधा बनता है। इसने भरे यौवन मे पुत्र का वियोग एसे बढ़े तो कहा भयौ हे नर, छोरिचले उठि अन्त छरेही। देखा, वैसे ही अपनी नारी को काल के मार्ग में जाते हए धाम खरे रहे काम परे रहे दाम डरे रहे ठाम धरे ही॥"५ निरखा, और इसन उन पुण्यवानो को, जो सदैव मान पर श्री द्यानतराय ने भी भगवान जिनेन्द्र को शाति चढ़े ही दिखाई देते थे, रक होकर बिना पनही के मार्ग प्रदायक ही माना है। वे उनकी शरण में इमलिये गये है मे पैदल चलते हए देखा, फिर भी इसका धन और कि शाति उपलब्ध हो सकेगी। उन्होंने कहा "हम तो जीवन से राग नही घटा । भूधरदास का कथन है कि ऐसी नेमिजी की शरण में जाते हैं, क्योकि उन्हें छोड़कर और सूम की अंधी से राजरोग का कोई इलाज नही है। "देखो भरि जोवन में पुत्र वियोग प्रायो, कही हमारा मन भी तो नहीं लगता। वे संसार के पापों की जलन को उपशम करने के लिए बादल के समान है। तसे ही निहारी निज नारी काल मग में। उनका विग्द भी तारन-तरन है। इन्द्र, फणीन्द्र और चन्द्र जे जे पुण्यवान जीव दीसत है यान हो , रंक भये फिर तेऊ पनही न पग में। भी उनका ध्यान करते है। उनको सुख मिलता है और ऐते , प्रभाग धन जीतब सौ धरै राग, ४. "दृष्टि घटी पलटी तनकी छबि बंक भई गति लंक होय न विराग जान रहूँगो अलग मैं। नई है। मांखिन विलोकि अन्ध सूसे को अंधरी, रूस रही परनी घरनी प्रति, रंक भयो परियंक लई है। कर ऐसे राजरोग को इलाज कहाँ जग मैं ॥"३ कांपत नार वहै मख लार महामति सगति छारि गई है। १. वही, ११वाँ पद, पृ०७। अग उपग पुराने परे तिसना उर और नवीन भई है।" २. वही, स्वाँ पद. पृ०६। जैनशतक, कलकत्ता, ३८वा सर्वया, पृ० १२ । ३. भूधरदास, जनशतक, कलकत्ता, ३५वा पद, पृ० १५। ५. वही, ३१वां पद, पृ० ११ ।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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