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________________ मध्यकालीन न हिन्दी काव्य में सामक्ति जीते जा सकते हैं। तभी यह जीव उस शांति का अनुभव अमर बनने की प्रार्थना करते हैं। क्योंकि पब क ग्रह करेगा, जो भगवान जिनेन्द्र में साक्षात् ही हो उठी थी। मनुष्य ससार के जन्म-मरण से छुटकारा नहीं पायेग, भैया का स्पष्ट अभिमत है कि राग-प में प्रेम करने के शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता। जैन परम्परा में देवों को ही कारण यह जीव अपने परमात्म-स्वरूप के दर्शनों का प्रमर नहीं कहते । यहाँ अमरता का पथ है मोक्ष, जहाँ प्रानन्द नहीं ले पाता अर्थात् वह चिदानन्द के सुख से दूर किसी प्रकार की प्राकुलता नही होती ऐसी शान्ति वह ही रहता है । राग-दंप का मुख्य कारण है मोह, इसलिए ही दे सकता है, जिसने स्वयं प्राप्त कर ली है। वे संसारी मोह के निवारण से राग-द्वेप स्वय नष्ट हो जायेंगे, और साहिब'. जो बारम्बार जनमते हैं, मरते हैं, और जो स्वयं राग-द्वंपों के टलने से मोह तो यत्किचित् भी न रह भिखारी हैं. दूसरों का दारिद्रय कैसे हर सकते हैं३ । पायेगा । कर्म की उपाधि को समाप्त करने का भी यह भगवान 'शान्तिजिनेन्द', जो स्वयं शान्ति के प्रतीक हैं, ही एक उपाय है । जड़ के उखाड़ डालने से भला वृक्ष सहज में ही अपने सेवकों के भाव-द्वन्द्वों को हर सकते हैं। कैसे टहर मकना है। और फिर तो उसके डाल-पात, फल भूधग्दाम उन्ही से ऐमा करने की याचना भी करते है।। फूल भी कुम्हला जायँगे। तभी चिदानन्द का प्रकाश यह जीव मंसारिक कृत्यों के करने में तो बहुत ही होगा और यह जीव सिद्धावस्था में अनन्त सुख विलस उतावला रहता है, किन्तु भगवान के सुमरन में सीरा हो सकेगा। जाता है । जंगे कम करता है, वैसे फल मिलते हैं। कर्म मोह के निवारे राग द्वषहू निवारे जाहि, करता है अशान्ति और याकुलता के, किन्तु फल में शांति राग-द्वेष टार मोह नेकहू न पाइए। और निराकुलता चाहता है, जो कि पूर्णरीत्या असम्भव कर्म की उपाधि के निवारिबे को पंच यहै, है। प्राक बोयेगा, ग्राम कैसे मिलेगे, नग हीरा नहीं हो जड़ के उखारं वृक्ष कैसे ठहराइए। सकता। जंगे यह जीव विषयों के बिना एक क्षण भी डार-पात फल-फूल सबै कुम्हलाय जायं, नही रह सकता, वैसे ही यदि प्रभु को निरन्तर जपे तो कर्मन के वक्षन को ऐसे के नसाइए। सामारिक अशाति को पार कर निश्चय शांति पा तब होय चिदानन्द प्रगट प्रकाश रूप, सकता है। विलस अनन्त सुख सिद्ध में कहाइए१ ॥ शान्तभाव को स्पष्ट करने के लिए भूधग्दास ने एक अनन्त सुख ही परम शान्ति है। भया न एक गुन्दर पृथक ही ढग अपनाया है। वे सामारिक वैभवों की से पद मे जैन मत को शान्तिरम का मत कहा है। शाति क्षणिकता को दिखाकर और ताजन्य बेचनी को उदघोकी बात करने वाले ही ज्ञानी है, अन्य तो सब प्रजाना ही जि पित कर चुप हो जाते है और उसमे-मे शाति की ध्वनि, . कहे जायगे। संगीत की झंकार की तरह से फूटती ही रहती है। धन भूधरदामजी के स्वामी की शरण तो इमीलिए सच्ची और यौवन के मद में उन्मत्त जीवो को सम्बोधन करते है कि वे ममथं और सम्पूर्ण शान्ति-प्रदायक गुणो मे युक्त हुए उन्होंने कहा, "त् निपट गंवार नर! तुझे घमण्ड नहीं है। भूधरदास को उनका बहुत बड़ा भरोसा है। उन्हान करना चाहिए। मनप्य की यह काया और माया झूठी जन्म-जरा प्रादि बैरियों को जीत लिया है और मरन का है, अर्थात क्षणिक है। यह महाग और यौवन कितने टेव मे छुटकारा पा गये है। उनसे भूधरदास अजर और समय का है, और कितने दिन इम मसार में जीवित रहना है। हे नर ! तू शीघ्र ही चेत जा और विलम्ब १. वही मिथ्यात्वविध्वंसन चतुर्दशी -वां कवित्त पृ० १२१ । ३. भूधग्दास, भूधरविलास कलकत्ता ५३वा पद । २. शान्तरसवारे कहैं मत को निवारे रहैं। १०३० वेई प्रानप्यारे रहैं और रमवारे हैं। ४. भूधरबिलाम, ३४वा पद, पृ० १६ । बही, ईश्वर निर्णय पच्चीसी छठा कवित्त, पृ० २५३। ५. वही, २२वा पद, पृ० १३ ।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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