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अनेकान्त
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कहीं भी खींचतान नहीं है, सब कुछ प्रासंगिक भोर है, उसका पास्वादन करने से परम मानन्द मिलता है। स्वाभाविक है।
वह मानन्द कामधेनु, चित्रावेलि और पंचामत भोजन के नरिदी के भक्ति-काव्यों में यदि एक और सांसा. समान समझना चाहिए। इस मानन्द को साक्षात करने रिक राग-द्वषों से विरक्ति है, तो दूसरी ओर भगवान वाला चेतन जिसके घट में विराजता है, उस जिनराज की से चरम शांति की याचना । उनको शाति तो चाहिए बनारसीदास ने वंदना की है । किंत अस्थायी नहीं। वे उस शांति के उपासक हैं जो यह जीव संसार के बीच में भटकता फिरता है किन्तु कभी पथकम हो। जब तक मन से दुविधा न मिटेगी, उसे शांति नहीं मिलती। वह अपने प्रष्टादश दोपों से वह कभी भी शांति का अनुभव नहीं कर सकता। और प्रपीड़ित है और प्राकुलता उसे सताती ही रहती है। यह दुविधा निजनाथ निरंजन के सुमिरन करने से ही भैया भगवतीदास का कथन है, "हे जीव ! इस संसार के दूर हो सकती है । कवि बनारसीदास अपनी चिंता व्यक्त असंख्य कोटिसागर को पीकर भी तू प्यासा ही है और इस करते हा कहते हैं, "न जाने कब हमारे नेत्र-चातक अक्षय- संसार के दीपो में जितना अन्न भरा है, उसको खाकर पद रूपी धन की बूदें चख सकेगे, तभी उनको निराकुल भी तू भूम्या ही है । यह सब कुछ अठारह दोपों के कारण शांति मिलेगी । और न जाने वह घड़ी कब पायेगी जब है। वे तभी जीते जा सकते हैं जब तू भगवान जिनेन्द्र हत्य में समता भाव जगेगा। हृदय के अंदर जब तक का ध्यान करे और उसी पथ का अनुसरण करे, जिस पर सगुरु के वचनों के प्रति दृढ श्रद्धा उत्पन्न नहीं होगी, पर- वे स्वयं चले थे। भैया की दृष्टि से अष्टादश दोष ही मार्थ सख नहीं मिल सकता। उसके लिए एक ऐसी अशांति के कारण हैं और वे भगवान जिन के ध्यान से लालसा का उत्पन्न होना भी अनिवार्य है, जिसमे घर छोड़
२. अनुभौ की केलि यहै कामधेनु चित्राबेलि, कर बन में जाने का भाव उदित हुप्रा हो।
अनुभौ को स्वाद पंच अमृत को कौर है । कवि बनारसीदाम ने 'शांतरस' को प्रारिमक रस कहा
बनारसीदास, नाटक समयसार, बम्बई, ३८ उत्थानिका, १. कब जिननाथ निरंजन सुमिगे,
१६वां पद्य, पृ० १७-१८॥ तज सेवा जन-जन की,
३. सत्य-सरूप सदा जिन्ह के, दुविधा क्ब जैहै या मन की ॥१॥
प्रगट्यो अवगत मिथ्यात निकंदन । कब रुचि सों पीवं दृग चातक,
सांत दमा तिन्ह की पहिनानि, बूंद प्रखयपद धन की।
कर कर जोरि बनारमि बंदन ॥ कब शुभ ध्यान धगें समता गहि,
वही छठा पद्य पृ०७॥ करून ममता तन की, दुविधा० ॥२॥
४. जे तो जललोक मध्य सागर असंख्य कोटि कब घट अन्तर रहै निरन्तर,
ते तो जल पियो पै न प्यास याकी गयी है। दृढ़ता सुगुरु बचन की,
जे ते नाज दीप मध्य भरे हैं मवार ढेर कब सुख लही भेद परमारथ,
ते ते नाज खायो तोऊ भूख याकी नई है। मिट धारना धन की, दुविधा० ॥३॥
तात ध्यान ताको कर जातं यह जाय हर, कब घर छोड़ होहुँ एकाकी,
अष्टादश दोप प्रादि ये ही जीत लई है। लिये लालसा वन की,
वहे पंथ तू ही साज अष्टादश जांहि भाजि, ऐसी दशा होय कब मेरी,
होय बैठि महाराज तोहि सीख दई है। हो बलि-बलि वा छन को, दुविधा० ॥४॥
भैया भगवतीदास, ब्रह्मविलास, जैनग्रंथ रत्नाकर बनारसीविलास, जयपुर १६५४, अध्यात्मपद पंक्ति, कार्यालय बम्बई, १९२६ ई० शत अष्टोत्तरी १६वा
कवित्त, पृ० ३२।