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________________ मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य में शान्ताभक्ति १९९ नहीं दिया। दाम्पत्य रति-मूला भगवद्भक्ति बुरी नहीं है। सौन्दर्य और कामुक विलास चेष्टानों का चित्र खींचा गया यह भी भक्ति की एक विद्या है। जैन काव्यो के माध्या- है। युवा मुनि स्थूलभद्र के संयम को डिगाने के लिए त्मिक विवाह इसी कोटि में पाते हैं। नेमीश्वर और राजुल सुन्दरी कोशा ने अपने विलास-भवन में अधिकाधिक प्रयास को लेकर शतशः काव्यों का निर्माण हुआ। वे मभी किया, किंतु कृतकृत्य न हुई । कवि को कोशा की मादकता सात्त्विकी भक्ति के निदर्शन हैं। उनमें कहीं भी जगन्मा- निरस्त करना अभीष्ट था, अत: उसके रति-रूप और ताओं की सुहागरातों का नग्न विवेचन नहीं है। जिसे मां कामुक भावो का प्रकन ठीक ही हमा। तप की दृढ़ता कहा, उसके अग-प्रत्यंग में मादकता का रंग भरना उपयुक्त तभी है, जल वह बड़े से बड़े सौदर्य के प्रागे भी दृढ़ बना नहीं है । इससे मां का भाव लुप्त होता है और सुन्दरी रहे । कोशा जगन्माता नही, वेश्या थी। वेश्या भी ऐसीनवयौवना नायिका का रूप उभरता है । घनाश्लेप मे वैसी नही, पाटलिपुत्र की प्रसिद्ध वेश्या । यदि पप्रमूरि माबद्ध दम्पति भले ही दिव्यलोक-वासी हों, पाठक या उसके सौदर्य को उन्मुक्त भाव से मूर्तिमत्त न करते तो दर्शक में पवित्रता नहीं भर सकते । भगवान पति को अस्वाभाविकता रह जाती। उससे एक मुनि का संयम प्रारती के लिए भगवती पत्नी का अंगूठों पर खड़ा होना मूढ प्रमाणित हुमा। इसमें कही अश्लीलता नही है । ठीक है, किन्तु साथ ही पीनस्तनों के कारण उनके हाथ सच तो यह है कि दाम्पत्य रति के रूपक को रूपकही की पूजा-थाली के पुष्पों का बिखर जाना कहाँ तक भक्ति रहना चाहिए था, किंतु जब उसमे रूपकत्त्व तो रहा नहीं, परक है ।१ राजशेखर मूरि के 'नेमिनायफागु' में राल रति ही प्रमुख हो गई, तो फिर प्रशालीनता का उभरना का अनुपम सौन्दर्य अंकित है, किन्तु उसके चारों ओर एक भी ठीक ही था। जन कवि और काव्य इससे बचे रहे। ऐसे पवित्र वातावरण की मामा लिखी हुई है, जिससे इसी कारण उनकी शातिपरकता भी बची रही।। विलासिता को महलन प्राप्त नही हो पाती। उसके मौन्दर्य हिदी के भक्त कवियोंने संस्कृत-प्राकृतकी शांतिधारा में जलन नहीं, शीतलता है। वह सु-दरी है किन्तु पावनता की मूत्ति है। उसको देखकर श्रद्धा उत्पन्न होती है । मैंने का अनुगमन किया। बनादसीदास ने 'नाटक समयसार' में 'नवमो शात रसनिकौनायक' स्पष्ट रूप से स्वीकार किया। अपने ग्रन्थ हिंदी जैन भक्ति काव्य और कवि' मे लिखा उनकी रचनाये इसकी प्रतीक है। आगे के कवि उनमे है, "जबकि भगवान के मंगलाचरण भी वासना के कैमरे से खीचे जा रहे थे, नेमीश्वर और राजुल मे मबधित प्रभावित हैं। हिंदी क इन जैन कवियों का मत्र, यत्र और शाति पाटो की रचना में मन न लगा। इनसे मंबधित मांगलिक पद दिव्यानुभूतियो के प्रतीक भर ही रहे। हिदी काव्य मस्कृत-प्राकृत ग्रंथो के अनुवाद भर है। देवी उन्होंने अपनी पावनता का परित्याग कभी नहीं किया । पद्मावती, अम्बिका आदि मत्राधिष्ठात्री देवियो की स्तुनियाँ जिन पद्ममूरि के 'थूलिभद्दफागु'२ में कोशा के मादक भी पूर्व काव्यो की छाया ही है। इनका मन लगा ससार की पाकुलता और राग-दंपो के चित्राकन मे उन्होने १. "पादारस्थितया मुहुः स्तनभरेणानीतया नम्रता पुन.-पुनः मन को वीतगगता की पोर प्रापित किया। शम्भोः सस्गृहलोचनत्रयपथं यान्त्या नदाराधने । इस दिशा में उनका पद-काव्य अनुपम है। मानव की ह्रीमत्या शिरसीहितः सपुलकस्वेदोद्गमोत्कमया मूल वृत्तियों के समन्वय ने उसे भाव-भीना बना दिया है। विश्लिप्यन्कुसुमाञ्जलिगिरिजया क्षिप्तोऽन्तरे पातूव.॥" वे साहित्यिक कृतियाँ हैं। उनमे उपदेश की रक्षना ना श्रीहर्ष, रत्नावली, प्रथम मगलाचरण । किञ्चित्मात्र भी नहीं है। कोई भी बात, चाहे उपदेश२. यह काव्य प्राचीन गुर्जर ग्रन्थमाला ३, मं० २०११, परक ही क्यों न हो, भावो के सांचे में ढल कर साहित्य पृ० ३.७ पर प्रकाशित हो चुका है। बन जाती है। जैन हिंदी के प्रबध और खण्ड काव्यों का ३. देखिए 'हिन्दी जैन भक्ति काव्य मोर कवि', प्रथम भी मूल स्वर शांत रस ही है। अन्य रस भी हैं, किंतु मध्याय, पृ०४। उनका समाधान शानरस में ही हुआ है। ऐसा करने में
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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