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प्रनेकान्त
कुछ था
उनमें
सब एक
यह पावनता जैन हिन्दी कवियों में भी पनपी । उनके काव्य में अपने प्राराध्य की महत्ता है । अन्य देवो की बुराई भी । किन्तु अनेक स्थल तरतमांश से ऊपर उठे है, या उन्हें बचाकर निकल गए हैं। महात्मा ग्रानन्दघन का ब्रह्म अखंड सत्य था। अखंड सत्य वह है जो अविरोधी हो, अर्थात् उसमें किसी भी दृष्टि से विशेष की सम्भावना न हो कोई धर्म या प्रादर्श, जिसका दूसरे धर्मो से विरोध हो, अपने को प्रखण्ड सत्य नही कह सकते । वे खण्ड रूप से सत्य हो सकते हैं। आनन्दघन का ब्रह्म राम रहीम, महादेव, ब्रह्मा और पारसनाथ सब प्रापम में कोई विरोध नहीं था। वे उनमें तरतमांश था और न उनके महात्मा जी का कथन था कि जिस मिट्टी एक होकर भी पात्र भेद से अनेक नामो पुकारी जाती है, उसी प्रकार एक प्रखण्ड रूप ग्रात्मा में विभिन्न कल्पनात्रों के कारण अनेक नामों की कल्पना कर ली जाती है । उनकी दृष्टि से निज पद मे रमन वाला राम है रहम करने वाला रहमान है, कर्मों का कर्पण करने वाला कृष्ण है, निर्वाण पाने वाला महादेव है, अपने रूप का स्पर्श करने वाला पारस है, ब्रह्म को पहचानने वाला ब्रह्म है । वे इस जीव के निष्कर्म चेतन को ब्रह्म कहते है। उनका कथन है
रूप में
प्रकार
से
२०६
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थे । न
भेद था ।
"राम कहो, रहमान कहो कोऊ, कान कही महादेव री । पारसनाथ कहो, कोई ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री । भाजन भेव कहावत नाना, एक मृतिका रूप रो । तैसे खण्ड कल्पना रोपित श्राप प्रखण्ड सरूप री । निजपद एवं राम सो कहिए, रहिम करे रहिमान से क करम कान सो कहिए, महावेव निर्वाण री । परसे रूप पारस सो कहिए, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्म री । इह विधि साघो प्रानन्दघन, चेतननय निष्कर्म री ॥ " १
इस प्रकाद की उदार परम्पराम्रों ने जैन काव्यो में शान्ता भक्ति के रूप को शालीनता के साथ पुष्ट किया था। इसी सन्दर्भ मे माया की बात भी प्रा जाती है । माया, मोह और संतान पर्यायवाची है। संत, वैष्णव धर
१. महात्मा ग्रानन्दघन, आनन्दघन पद संग्रह, अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडल, बम्बई, ६७वीं पद |
जैन तीनों ही कवियों ने शान्ति के लिए उसके निरसन को अनिवार्य माना । वह अज्ञान का प्रतीक है । उसके कारण ही यह जीव संसार के आवागमन मे फंसा रहता है । यदि वह हट जाय तो समस्त विश्व ब्रह्म रूप प्रतिभासित हो उठे। वह दो प्रकार से हट सकती है— ज्ञान से और भक्ति से सांख्यकारिका में एक अत्यधिक मनोरजक दृष्टान्त झाया है। प्रकृति सुन्दरी है और पुरुष को लुभाने में निपुण है, किन्तु जब पुरुष उसे ठीक से पहचान जाता है, तो वह लज्जा से अपना बदन ढँक दूर हो जाती है। ठीक से पहचानने का अर्थ है कि जब पुरुष को ज्ञान उत्पन्न हो जाता है और वह प्रकृति के मूल रूप को समझ जाता है तो वह प्रवृति माया पलायन कर जाती है२ । जैन सिद्धांत मे ज्ञान ही आत्मा है । यहाँ आत्मा का अर्थ है विशुद्ध ग्रात्मा प्रर्थात् जब जीवात्मा मे विशुद्धता प्राती है तो मोह स्वतः ही हटता जाता है। जैन आचार्यो ने आठ कर्मों मे मोहनीय को प्रबलतम माना है । 'स्व' को सही रूप में पहचानने में वह ही सबसे बड़ा बाधक है । उसकी जड को निर्मूल करने में ज्ञानी ग्रात्मा ही समर्थ है बनारसीदाग का वचन है, "माया बेली जेसी देसी । रेते में धारेती सेती, फंदा ही को कदा खोद खेती को सो जोपा है ।३ सास्य की मी बात भैय्या भगवतीदास ने बिनास में कही है। उन्होंने लिखा कि कायारूपी नगरी में चिदानन्द रूपी राजा राज्य करता है । वह माया रूपी रानी में मग्न रहता है। जब उसका सत्यार्थ की ओर ध्यान गया, तो ज्ञान उपलब्ध हो गया और माया की विभोरता दूर हो गई, "काया-मी जु नगरी में चिदानन्द राज करें, माया-मी जु गमी मगन बहु भयो है।"४ कबीरदास ने भी जब उसका भेद पा लिया तो वह बाहर जा पड़ी। उनका भेद पाना ज्ञान प्राप्त करना ही है ।
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२. प्रकृतेः सुकुमारन किञ्चिदस्तीति मे मतिर्भवति । या दृष्टाऽस्मीति पुननं दर्शनमुपैति पुरुषस्य ॥" सांख्यकारिका, चौखम्बा मस्कृत सीरीज, प्रथम मस्करण, वि० सं० १९९७, ६१ लोक
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नाटक समयसार, मोक्षद्वार, तीसरा पद्य
शत प्रष्टोत्तरी, २८ सवैया, ब्रह्मविलास, पृ० १४ ।
३.
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