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मध्यकालीन जंन हिन्दी काव्य में शान्ताभक्ति
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ज्ञान के बिना माया मजबूत चिपकन के साथ संसारी जीव वचनों से मोह विलीन होता है और भ्रात्मरस प्राप्त होता को पकड़े रहती है। है५ । बनारसीदास ने गुरु को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है । मोह जन्य बेचनी दूर होने का एक मात्र उपाय गुरु का प्रदेश है। यदि ग्रात्मा 'प्रलख प्रखय निधि' लूटना चाहती है तो उसे गुरु की सद्वाणी से लाभान्वित होना ही चाहिए। उनका कथन है, "गृह उपदेश सहज उदयागति, मोह विकलता छूट। कहत बनारसि है करुनारसि भलख प्रखयनिधि लूटं ।" इस घट में सुधा-सरोवर भरा है। जिससे सब दुख विलीन हो जाते हैं। उस सरोवर का पता लगना आवश्यक है। वह सतगुरु से लग सकता है। सतगुरु भक्ति से प्रसन्न होते है। उनपर मन केन्द्रित करना पडता है । कवि विनयविजय ने लिखा"सुधा सरोवर है या घट में, जिसतें सब दुख जाय । विनय कहे गुरुदेव दिखाये, जो लाऊं बिल ठाय ॥ प्यारे काहे कूं ललचाय ॥ "७ श्रात्मरस ही सच्ची शांति है। वही अलख श्रग्वयनिधि है । वह अनुभूति के बिना नहीं होता बढ़ा की, भगवानकी या परमात्मा की अनुभूतिही धारमरस है। धनुभूतिके बिना नालोंकरोड़ों भवों में जप-तप भी निरर्थक है। एक स्वांग की अनुभूति जितना काम करती है । भव-भव की तपस्या और साधना नहीं। द्यानतरायने लिखा है, "लाख कोटि भव तपस्या करते, जितो कर्म तेरो जर रे स्वास उस्वाम माहि सो ना जब अनुभव चित पर रे । बनारसीदाम ने अनुभूति को अनुभव रहा है उसका मानन्द कामधेनु, चित्राबेल के समान है। उसका स्वाद पंचामृत भोजन। जैसा है । कवि रूपचन्द ने 'अध्यात्मगया' में स्वीकार
तुलसीदास ने भक्ति के बिना माया का दूर होता असम्भव माना है। इस सम्बन्ध में रघुपति की दया ही मुख्य है। वह भक्ति से प्राप्त होती है। तुलसी ने विनयपत्रिका में लिखा है, "माधव धस तुम्हारी यह माया, करि उपाय पचि मरिय तरिय नहि, जब लगि करहु न दाया१" जैन कवि भूधरदाय ने मोह-पिशाच को नष्ट करने के लिए 'भगवन्त भजन' पर बल दिया । उसको भूलने पर तो मोह से कोई छुटकारा नही पा सकता। उन्होंने लिखा है " मोह पिशाच छत्यो मति मारे, निजकर कंध वसूला रे भज श्री राजमतीवर भूधर दो दुरमति सिर धूला रे । भगवंत भजन क्यों भूला रे२ ।" कबीर की दृष्टि में माया से छुटकारा प्राप्त करने के लिए सतगुरु की कृपा आवश्यक है। कबीरने सतगुरु को योविन्द से बड़ा माना है । उनका कथन है कि यदि गुरु की कृपा न होती तो वह इस जीव को नष्ट कर डालती । क्योकि वह मीठी शक्कर की भांति शीरनी होती है। जायसी नं भी माया का लोप करने के लिए सतगुरु की कृपा को मह त्वपूर्ण समझा था । उन्होंने लिखा है कि जबतक कोई गुरु को नहीं पहचानता उसके और परमात्मा के मध्य अन्तगल बना ही रहता है। जब पहचान लेता है तो जीव और ब्रह्म एक हो जाते है। उनका मध्यान्तर मिट जाता है । जायमी की मान्यता है कि यह अन्तर माया जन्य ही है४ । भैया भगवतीदास को पूरा विश्वास है कि सतगुरु के १. विनयपत्रिका, पूर्वा ११६ पद २. भूपरविलास, कलकत्ता, १६ व पद, पृ० ११ ३. कबीर माया मोहनी, जैसी मोटी खांड ।
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समगुरु की कृपा भई, नहीं तो करती भांड." माया को पंग, ७ वीं सारवी, कबीर ग्रन्थावनी,
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काशी चतुर्थ संस्करण, पृ० ३३ ।
"जब लगि गुरु कौ लहा न चीन्हा । कोटि अन्तरपट बीचहि दीन्हा ॥ जब चीहा तब घर न कोई तन मन जित जीवन सब सोई ॥" देखिए जायसी कृत पद्मावत ।
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५. सतगुरु वचन धारिले धबके जातें मोह विलाप । तब प्रग मानमरम भैया, सो निश्चय टहराव ॥" भैया भगवनीदाम, परमार्थपदपंक्ति, २५ व पद ब्रह्मविलास, पृ० ११८ । ६. बनारसीदाम, अष्टपदीमल्हार, ८ वां पद्य, बनारसीविलास, जयपुर, पृ० २३९ ।
७. विनयविजय प्यारे काई कुलवा' शीर्षक पद अध्यात्मपदावली कानी, पृ० २२१ ।
८. द्यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, १८ ७३ वां पृ० ३१ ।
२. बनारसीदाम, नाटकसमयसार, बम्बई, १२ व प पृ० १७-१८ ।