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________________ २१० मनेकान्त 16 किया है, "मात्म ब्रह्म की अनुभूति से यह चेतन दिव्य प्रकाश से युक्त हो जाता है। उसमें धनन्तज्ञान प्रकट होता है औौर यह अपने आप में ही लीन होकर परमानन्दका अनुभव करता है १ ।" आत्मा के अनूपरस का संवेदन करने वाले अनाकुलता प्राप्त करते हैं । प्राकुलता बेचैनी है। जिससे बेचैनी दूर हो जाय, वह रस अनुपम ही कहा जायेगा। यह रस अनुभूति से प्राप्त होता है, तो धनुभूति करने वाला जीव शाश्वत सुखको विलसने में समर्थ हो जाता है । पं० दीपचन्द शाह ने ज्ञानदर्पण में लिखा है, "अनुभी विलास में अनंत सुख पाइयतु । भव की विकारता की भई है उछेदना ||" उन्होंने एक दूसरे स्थान पर लिखा, अनुभौ उल्हास में अनंतरस पायौ महा ।।" यह श्रखण्ड रस और कुछ नहीं साक्षात् ब्रह्म ही है। अनुभूति की तीव्रता इस जीव को ब्रह्म ही बना देती है । श्रात्मा परमात्मा हो जाती है। अनुभव से संसार का आवागमन मिटता है । यदि अनुभव न जगा तो, "जगत की जेती विद्या भासी कर रेखावत, कोटिक जुगातर जो महातप कीने हैं। अनुमो मण्डरस उरमें न धायौ जो तो सव-पद पावे नाहि पररस भीने २ ।" किन्तु यह महत्त्वशाली तत्त्व भगवान की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है । महात्मा मानन्दघन का कथन है, "मोको दे निज अनुभव स्वामी निज अनुभूति निवास स्वपामी३ ।" इस अनुभूति से जो संयुक्त है वही अनंत गुग्गातम धाम है । अनुभव रूप होने के कारण ही भगवान नाम भी दुख हरण करने वाला और प्रतिभव को दूर करने वाला है । महात्मा का कथन है कि प्रभु के समान और कोई नटवा नही है । उसमे से हेयोपादेय प्रकट होते हैं। अनुभव रसका देनेवाला इष्ट है, वह परम प्रकृष्ट और सब कष्टों से रहित है। उसकी अनुभूति ही चित्र की भ्रांति को हर सकती है। यही सूर्य की किरण की भांति प्रज्ञान के तमस को नष्ट करती १. रूपचन्द्र अध्यात्मसवैया, मन्दिर बधीचंद्र जी, जयपुर की हस्तलिखित प्रति । २. दीपचदशाह, ज्ञानदर्पण, तीनों उदाहरण- क्रमश पद्य ० १०१ १७५ १२६ संकलित मध्यात्म पचसंग्रह प० नाथूलाल जैन सम्पादित, तुकोगंज, इन्दौर- वि० सं० २००५, पृ० ६१,५६, ४४ क्रमश. । ३. महात्मा ग्रानन्दघन, आ० पद सग्रह बम्बई २१वा पद । है । वह माया रूपी यामिनी को काट कर दिन के प्रकाश को जन्म देती। वह मोहामुर के लिए काल-रूपा है "या अनुभूति रावरी हरं विस की भ्रान्ति सा शुद्धा तुव भानु की किरण जु परम प्रशान्ति ॥ किरण ज् परम प्रशान्ति तिमिर यवन जु को नासं । माया यामिनि मेटि बोध दिवसेज विभास ॥ मोहासुर सरकार ज्ञानमूला जु विभूती। भावे दौलत ताहि रावरी या अनुभूती ॥४ जैन कवियो के प्रबन्ध और खण्ड काव्यों में 'शान्तरस' प्रमुख है । अन्य रसों का भी यथा-प्रसंग सुन्दर परिपाक हुआ है, किन्तु वे सब इसके सहायक भर हैं । जिस प्रकार ग्रवान्तर कथायें मुख्य कथा को परिपुष्ट करती है उसी प्रकार अन्य रस प्रमुख रस को और अधिक प्रगाढ़ करते हैं। एक प्रबन्ध काव्य में मुख्य रस की जितनी महना होती है, महायक रमों की उससे कम नहीं | पं० रामचन्द्र शुक्ल अवान्तर कथाओं को रस की पिचकारियां कहते थे, सहायक रस भी वैसे ही होते है वे अवान्तर कथाओं और प्रासंगिक घटनाओ के संघटन में सन्निहित होते हैं और वहां ही काम करते है। एक महानद के जल प्रवाह में सहायक नदियों के जल का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है, वैसे ही मुख्य रस की गति भी अन्य रसो से परिपुष्ट होती हुयी ही वेगवती बनती है । किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मुख्य रस केवल परिणति होता है, प्रारम्भ नही । यद्यपि प्रत्येक रस अपने-अपने क्षेत्र मे स्वतन्त्र और बलवान होता है किन्तु उसके अन्तरंग में मुख्य रस का स्वर सदैव हलके सितार की भांति प्रतिध्वनित होता ही रहता है । एक प्रबन्ध काव्य में घटनाएँ, कथाएँ तथा अन्य प्रसंग होते हैं, जिनमें मानव-जीवन के विविध पहलुों की अभिव्यक्ति रहती है किन्तु उनके जीवन में मुख्य रस एक प्राण तत्व की भांति भिदा रहता है और उनमें मानव की मूल मनोवृत्तियों को खुला खेलने का पूरा अवसर मिलता है। मुख्य रस प्रोर मुख्य कथा भी होती है। दोनों में कोई विशेष नहीं होता। दोनों दूध-पानी की भाँति मिले रहते हैं । श्रतः जैन काव्यों के ४. पं० दौलतराम, ग्रामवारी दि०जैन पंचायती, मन्दिर, बड़ौत, ११८वां १द्य ।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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