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________________ अपभ्रंश भाषा की की दो लघु रासो-रचनाएं (३) अपभ्रंश का साहित्य पाठवीं सदी से लेकर रचनाएँ वीररस प्रधान होती हैं । मुख्य रूप से शृङ्गार, सतरहवीं सदी तक का लिखा हुप्रा मिलता है। परन्तु शान्त और वीरग्स में रासो रचनाएँ लिखी गई हैं। रासो-रचनाएँ बारहवीं शताब्दी से मिलने लगती है। (१०) अपभ्रंश की इन रचनामों को पं० चन्द्रधर इससे हिन्दी-साहित्य का इतिहास लगभग दो-तीन सौ . शर्मा गुलेरी के शब्दों में "पुरानी हिन्दी" की रचनाएँ वर्ष और आगे खिसक जाता है। कहने से यही प्रतीत होता है कि ये परवर्ती कालीन (४) रचना-प्रकार, प्राकार और रस-संयोजना आदि अपभ्रंश की रचनाएँ हैं जिनपर जूनी गुजराती या पुरानी सभी बातों में रासो नामधारी-रचनाएं विभिन्न रूपों में राजस्थानी का प्रभाव है। मिलती हैं। परन्तु इन सभी में गेयता किसी-न-किसी इस प्रकार अपभ्रश की इन लघु रास-रचनामों का रूप में समाहित है। अध्ययन भारतीय आर्य भाषाओं की प्राधुनिक पृष्ठभूमि (५) ऐसा जान पड़ता है कि प्रारम्भ में मन्दिरों में __ को समझने के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हो मूर्तियों के समक्ष भक्ति-भाव प्रकट करने के लिए विविध जाता है। धार्मिक उत्सवों के अवसर पर ताल, लय और गीति के __यहाँ पर अपभ्रया की दो लघु रासो-रचनामों का अनुकरण एवं सादृश्य पर इस प्रकार की रचनाएँ लिखी परिचय प्रस्तुत है । लेखक को ये दोनों रचनाएँ देहली के गई होगी। श्री दि. जैन सरस्वती भवन, पंचायती मन्दिर, मसजिद (६) भाषा की दृष्टि से इनका अत्यन्त महत्व है। खजूर में देखने को मिलीं । ये दोनों रचनाएँ गुटका सं० क्योकि इनमें लोकबोलियों की झलक स्पष्ट दिखाई पड़ती ३७ में लिखी हुई हैं। पहली रचना नेमिनाथरासा है। है। जिस प्रकार अपभ्रश को गुजराती विद्वान् गुजरात इसके लेखक काष्ठासंघ के मुनि कुमुदचन्द्र है। काष्ठासंघ की, गजस्थान के लोग गजस्थान की और मिथिला के के अधिकतर प्राचार्य एवं मुनि अपभ्रंश और जन-साहित्य साहित्यिक मिथिला की तथा बंगाल के विद्वान् बगला के लेखक थे । ये सभी मध्यकाल में हुए। लगभग पांचभाषा समझते रहे है और उसे जूनी गुजराती, पुरानी छ मौ वर्षों की एक लम्बी परम्परा मिलती है। गजस्थानी, प्राचीन बंगला और पुरानी मराठी तथा इस देश में विभिन्न सम्प्रदाय हैं। उनमें भी अलगपुरानी हिन्दी मानते रहे हैं :सी प्रकार कुछ लोग नरपति अलग शाखाएँ एवं पन्थ हैं। प्राचीन-परम्पग के अनुसार नाल्ह कृत 'वीसलदेवरास" को गुजराती समझते है। जैनों के चौरासी गच्छ कहे जाते है। कालान्तर में जैन क्योंकि उसकी भाषा पर पुरानी राजस्थानी और गुजगती सघ में कई संघ बनने लगे थे जिनमें देवमघ, गौडसंघ, का प्रभाव बराबर बना हुआ है। नदिमघ मूलमध, यापनीयसंघ, काप्ठासंघ प्रादि मुख्य (७) भारतीय साहित्य में उपलब्ध रासो-रचनायो थे। काष्ठासंघ की मध्य युग में चार शाखाएँ थीं-नन्दिके अध्ययन से स्पष्ट हो जाता कि इसका अधिकतर तट, माथुर, बागड पोर लालबागड । और इसी प्रकार साहित्य गुजरात और राजस्थान में लिखा गया, और पुष्करगण, बलात्कारगण, देसीगण और सरस्वतीगच्छ. पाज से लगभग एक सहस्र वर्ष पूर्व जूनी गुजराती पोर माथुग्गच्छ, पुस्तकगच्छ और नन्दीतटगच्छ-ये चार पुरानी राजस्थानी दोनों एक थीं।। गच्छ थे। मुनि कुमुदचन्द्र माथुरान्वय पुष्करगण में उत्पन्न हुए थे। (८) रासो-रचनाएं गेय होने के कारण अधिकतर । श्रुति या मौखिक रूप में प्रचलित रहीं। इसलिए अलग- १. श्रीपाश्वचैत्यगेहे काप्ठासघे च माथुरान्वयके । अलग युग की बोलियों का पानी उन पर चढ़ता रहा है। पुष्करगणे बभूव मट्टारकमणिकमलकीया॑ह्वः ॥२॥ ___(8) वस्तुत: "रासो" नाम से हमें किसी काव्य तत्पट्टकुमुदचन्द्रो मुनिपतिशुभचन्द्रनामषेयो भूत्। विशेष का बोध नहीं होता । यह भ्रम मात्र है कि रासो जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग, पृ० २२२॥
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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