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________________ अनेकान्त काष्ठासंघ की पट्टावली से यह तो पता लगता है कि जल चंदणयुष्फक्स एहि नेवर्जािह भराविड । इस संघ की उत्पत्ति लगभग दसवीं सदी के मध्य भाग में अगर कपूरह बहु फलिहि तहि परिमल प्रायउ। हुई थी परन्तु पुष्करगरण कब और कैसे बना इसका चालिय बाल मणि हस तिजि (तजि) णवर पय भत्ती। उल्लेख नहीं मिलता। बृहत्सिद्धचक्रपूजा की प्रशस्ति से ठाई ठाई तिहि विति रासु सुर वर (नर)मोहंती ॥३॥ यह स्पष्ट है कि पुष्करगण के भट्टारक कमलकीर्ति कुमुद- सुवणरेह नदी वहा जहि खेलहि हंस......। चन्द्र के पट्टधर भट्टारक यशसेन थे। यशसेन की शिष्या गाडि बडिउं तहि वाहिणई दामोदर दासो। राजश्री थी। और राजश्री के भ्राता नारायणसिंह थे। रलियइ पूजिउं तहि मुरारि चम्पे करि माला। नारायणसिंह के पुत्र पण्डित जिनदास थे। उनके प्रादेश वामह देखिाव काल मेघु गलि धार लिय माला॥ से कवि वीरु ने वि० सं० १५८४ में देहली के मुगल चडिय पाज तहि पमाउ करि पउ वीजह तित्थु । बादशाह बाबर के राज्यकाल में रोहितासपुर (रोहनक) अंबारायण फलिय जित्यु कोहल सुम हूकइ । के पार्श्वनाथमन्दिर में बृहत्सिद्धचक्रपूजा लिखी थी । चडतह पाज सुमन रलई लहर डीयऊ बुकह॥॥ इससे इतना निश्चय है कि मुनि कुमुदचन्द्र पन्द्रहवी दीवउ जादव वारणउ तोरणह सजुत्ती। शताब्दी के पूर्व हुए। परन्तु कितने वर्षों के पूर्व हुए, यह ऊपरि पाली फूलमाल तोरणि हलकती। निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता । क्योंकि भट्टारक प्रागइ कामिणी रासु१ देहि जहिं सुवण्ण वाडउ । यशसेन के सम्बन्ध में भी यह जानकारी नही मिलती गायण जणह तबोलु देहि रगमडपि ताडउ ॥६॥ कि वे कब हुए थे। अनुमानत: ये तेरहवी शताब्दी के हात्यिहि चउसरु मिलिउ संघु जिण भवणि परापन। उत्तरार्द या चौदहवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध के जान पड़त मापुमापु कहि पूज मनु-जिणवा लाय। हैं। क्योंकि रासो में प्रयुक्त भाषा हिन्दी के निकट है, हवण महाच्छव ध्वजा पूज नेमि जिणह करायउ। जिसे उत्तरकालीन अपभ्रंश या पुरानी हिन्दी कहा जा राजुल प्रागह जाइ करि सखीयण पहिरायउ॥७॥ सकता है। ऊपरि अंबिक देवि तिथु जिणसासण भत्ती। प्रय नेमिनाथरासा लिख्यते ॥ पूजिवि अंबिक कणय कृषि (?)पजन्नि पहत्ती। पहिल पणमड नेमिनाह सरस घहि वासो। पालोयण सिहरिहि चडेवि रहमिहि पूजवि। सामल वर्ण शरीर तात्रु बहु गुणह सहासो। सग्गिणि सेणिय स्वामी तित्य बहभावि जोइवि ॥ सोरठू देसु सुहावण बहु मगल सादो। काष्ठसंघि मणि कुमुरचन्द इहु रास, पयासइ। घर घर गावह कामिमी गं कोहल नादो। मणतह गुणतह भबियणह घरि संपह होसह । मिनाथ का रासु एहु जो परि कहि गावइ । जूनागढ़ रलीयावणउं जहि विविह वाणीय । जाण तण उ फल होई तासु जो जिणवर भाव ॥६ देहि रासु ए लहग वाल णं सुख विण्णीय ॥ ॥ इति श्रीनेमिनाथरासकं समाप्तम् । पहिरि चीर बक्षणउ एहरि चन्दन लायउ । चैतिरासा रणिहि जडाय सहुँ चलीय पय उह वायउ। चंतिरासा के लेखक ब्र० ऊदू हैं। जैन-साहित्य में मुखि तंबोल सुमाणि करि सिरि खूर३ भराय। यह नाम सर्वथा नवीन है। इनके सम्बन्ध में कुछ भी वाजहि मद्दल संख भेरि मुहि कुंकुम लायउ॥२॥ ज्ञात नही है। उक्त रचना से यह अर्वाचीन जान १. देखिए, पं० परमानन्द शास्त्री का लेख "काष्ठासघ पड़ती है। स्थित माथुरसंघ गुर्वावली" शीर्षक, प्रकाशित जिणरास गावहि चइतालइ स्व जाइ। "अनेकान्त", वर्ष १५, किरण २, पृ० ७॥ तिन कहुँ कक् चन्दनु, माषा टिकुली लाइ। २. जैनग्रन्यप्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग प्रस्तावना, पृ०६४॥ १. गोलाकार मण्डल में नृत्य पूर्वक गीतों का गायन ३. माथे पर कुंकुम प्रादि का तिलक लगाया था। करना।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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