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अपभ्रंश भाषा कीबो लघु रासो-रचनाएं
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जे नरनारी गावहि, जिण-चाताला माइ। राजुल का वृत्त प्रत्यन्त ख्यातवृत्त है। इसलिए वियोयनेमि कुंवर तिन तोषउ, तूसउ सारद माइ। वर्णन तथा बारहमासों का वर्णन करते हुए विभिन्न अथ चत्य रासा बारहमासा लिख्यते :
कवियों ने विभिन्न भाषाओं में राजल का विरह-वर्णन पलिगि बहठे दुइ अण, करहि मणोरह बाता। किया है। चाहिं चित्त उ माहिउ, पिय चालह जिन जाता ॥१॥ बारहमासा की परम्पग का विकास षड्ऋतु-वर्णन बइसाखिहि वर वारिहि कंचण कलस भराए। से हमा जान पडता है। महाकवि कालिदास के "ऋतुसंहार" साषण पुग्णहं प्रागली जिमह वणु काण ॥२॥ में हमें सबसे पहले छः ऋतुमों का स्वतन्त्र वर्णन मिलता खंदण भरीय कचोलडी१, अरु घालिय कपूरो। है। लोक-साहित्य की मौखिक परम्परा में प्राज तक अठहं सव्वई जेठड, बरबहु सावल घोरो ॥३॥ बारहमासा की स्वतन्त्र विधा प्रचलित है। अपभ्रंश, प्राषाढहं अक्खयह सार, वर पाल भराए। गुजराती, राजस्थानी और हिन्दी में लिखे गये नेमितिनि खण जिणवह पुज्जियज, लह पुज्ज कराए ॥४॥ बारहमासा प्राज भी देश के विभिन्न भागों में सुने जा कुंजउ मरुवउ सेवती, अवर सुयंधी जाए। मकते हैं । हिन्दी की मध्ययुगीन काव्यधारा में षड्ऋतु: मावणु जिणबरु पुज्जियउ, सुमणस माल चडाए । ॥ वर्णन और बारहमामा की प्रवृत्तियों का विशेष रूप से षडरस पुण्णउं सालि भोज, मह उप्पु (?) अपारो। ममाहार हया है। इस सन्दर्भ में अब्दुल रहमान के भावव जिणवा पुज्जियउ, तिनि घण कियउ मिंग'रु ॥६॥ मन्देशरामक और जायमी के पद्मावत में विशेष साम्यघंटा झल्लरि भेरि तर, बहु पटह बजाए। लक्षित होता है। प्रासउजिहि२ घण चाली, जिणहरि दीव चडाउ ॥७॥ अपभ्रा में केवल इतिवृत्तात्मक या वर्णनात्मक कातिगमासु सुहावणउ, घरि घरि मंगल चाट। गमो रचनाएँ ही नहीं लिखी गई। इसमें भावों तथा प्रतीसा घण जिणवर पूजइ, खेवइ अगर अपार ॥८॥ कों को लेकर भी कुछ गमो-रचनाएँ मिलती हैं । अधिकबाख विजउरा राहणी, अरु चिरज सुहाए। तर गसो रचनाएं गुजराती में लिखी गई हैं। गुजराती मगसिरहं बहु मान हइ, लइ जिणहं चडाउं ॥६॥ का मल साहित्य रासो-साहित्य ही है-जो अपभ्रंश के घण पिउ पूजिवि, एक ठाई कृसमंजलि विण्णी। अधिक निकट है। गुजगती का उपलब्ध रासा-साहित्य पूसह पोसिउ सयलु लोउ, सा सीलि सउण्णी॥०॥ इस प्रकार है-विजयदेवमूरिशस, चन्द्रकुमारगस, शालिमाघह महरस पूर करि, बह भोज कराए। भद्रास (मनिमार), हीरविजयमूरिगम (ऋपभदाम), साधण संघहु तेइ वाणु, अम्बर पहिराए ॥११॥
हरिबलगस (कुशलमंयम), हरिबलरास (लब्धिविजय), पनि जननी पनि बापु मेण, सुह लक्खण जाई।
थीपालरास (गुणसुन्दर), श्रीपालरास (जानसागर), घणि कणि पुत्तहं पागली, पनि जिनि करि लाई ॥१२॥
कार लाई ॥१२॥ थोपालरास (जिनहर्ष), श्रीपालराम (विनय विजय), तोल्हउ दे गण प्रागली, फागुण पूनी प्रासा।
श्रीपालरास (यशोविजय) सुरसुन्दरीरास (नयसुन्दर), बंभयारि कवि ऊदू, गाए बारहमासा ॥१३॥
हंसगजवच्छराजरास (जिनोदयमूरि), सुदर्शनरास ॥इति॥
(उदयरत्न), सुमतिविलासरस (उदयरत्न), सिद्धचक्र उक्त दोनों गसो-रचनामों को ध्यान से पढने पर जानमागर) सजानदेरास (भीम), शालिभदरास प्रतीत होता है कि दोनों में नेमिनाथ और गजुल के ।
(साधुहंस), विमलमन्त्रीरास (लावण्यसमय), शत्रुजयइनिवृत्त को ग्रहण कर कवि ने गेय काव्य के रूप में
रास (समयसुन्दर), शीलरास (विजयदेवमूरि), हुकरासो-रचनाएं लिखी हैं। जैन-साहित्य मे नेमिनाथ और
३. विशेष जानकारी के लिए लेखक का "सन्देश रासक १. कटोरी।
तथा परवर्ती हिन्दी काव्य-धारा शीर्षक प्रबन्ध २. मासोज,।
दृष्टव्य है।
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