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अपभ्रंश भाषा की दो लघु रासो-रचनाएँ
डा. देवेन्द्रकुमार, शास्त्री
भारतीय साहित्य मूलतः कथा-साहित्य है जिसमें पृथ्वीराजरासो और बीसलदेव तथा रतनरासो आदि विभिन्न काव्य-विधामों में रचे गये एक-से-एक सुन्दर ग्रंथ इसी परम्परा के अन्तर्गत पाते हैं। इन रासो काव्यों में उपलब्ध होते हैं। इसका कारण धार्मिक तथा जातीय अधिकतर गेय-परम्परा का प्रकृत रूप दिखलाई पड़ता है। चेतना है जो भारतवर्ष की प्राय: सभी साहित्यिक रच- और गीति की परम्परा का प्रारम्भ प्राकृत काव्यों से नामों में व्याप्त है। और कथात्मक तथा पौराणिक रच- हमा है। अपभ्रंश के प्रबन्ध काव्यों में यह गीतिमूलक नामों में तो यह अधिक स्पष्ट है। जन-साहित्य में ऐसी प्रवत्ति विशेष रूप से मिलती है। पुष्पदन्त, धनपाल, छोटी-छोटी अनेक रचनाएँ हैं जो किसी घटना या घटना
साधारण सिद्धसेन और विबुध श्रीधर सादि ने अपने प्रबधत्मक इतिवृत्त को लेकर लिखी गई हैं। इन रचनाओं में
काव्यों में सुन्दर गीतियों की संयोजना की है। यही पर
मायों में मटर जहाँ हमें लोक-संस्कृति की झलक मिलती है वहीं उस म्परा हमें प्रागे चलकर हिन्दी के कथा तथा चरितकाव्यों युग की बोली जाने वाली भाषा का वास्तविक रूप भा में एवं सूफी काव्यों में लक्षित होती है। हिन्दी में ही मिलता है। इन रवनामों के पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है नहीं गजराती. राजस्थानी और मैथिली साहित्य में भी कि ये सहज और स्वाभाविक हैं. इनको लिखने में बौद्धिक यह परम्परा अाज तक मरक्षित है और इसका मूल स्रोत तथा भाषा-शास्त्रीय प्रायाम व्यायाम की आवश्यकता प्राकृत-अपभ्रंश साहित्य ही है। विशेष रूप से अपभ्रंश मे नहीं पड़ती है।
ही ऐसी रचनाएँ मिलती है। प्राकृत में नहीं। इसलिए अपभ्रंश का रासा-साहित्य अधिकतर परवर्ती युग इनका विकास अपभ्रंश से ही मानना पड़ता है। यद्यपि का है। बारहवीं शताब्दी के पूर्व की कोई रचना अभी प्राकृत में बीज रूप में यह प्रवृत्ति मिलती है परन्तु स्वतन्त्र तक उपलब्ध नहीं हो सकी है। अधिकतर तेरहवीं और विद्या के रूप में अपभ्रंश में ही रास, फागु, चर्चरी, बेलि, चौदहवी सदी के रासो काव्य मिलते हैं। मुख्य रासा- गीति प्रादि विभिन्न रूपों में यह मुखरित ई है। इन रचनाएँ इस प्रकार हैं
रासो-रचनामों का कई बातों में महत्व है। कुछ बातें इस मासिक कवि कृत "जीवदयारास" (सं० १२५७),
प्रकार हैजिनदत्तसूरि-उपदेशरसायनरास १२वी शताब्दी), जिनवरदेव-बुद्धिरसायणगस, जिनप्रभसूरी-अन्तरंगरास, जल्हिग- (१) गुजराती, राजस्थानी और हिन्दी का प्रादिअन्प्रेक्षारास, देल्हड-गयसुकुमालरास (बारहवी शताब्दी), कालीन काव्य अधिकतर रामा-साहित्य है । यह उस युग धर्मसुरि-जम्बूस्वामीरास (सं० १२६६), प्रजातिलक- की प्रति विशेष का परिचायक है । कलती रास (मं० १३६३), विजयसेनसूरि-रेवंतगिरिरास (मं० १२८८), अम्बदेवसूरि-रामरारास (सं० १३७१), (२) यह माहित्य अधिकतर बारहवीं शताब्दी से अब्दुलरहमान-सन्देशरासक (चौदहवीं शताब्दी), विनय- लेकर मोलहवीं शताब्दी तक लिखा गया। गाधुनिक भारचन्द-चूनडीरास, कल्याणकरास (तेरहवी शताब्दी), तीय आर्य भाषाओं में लिखा गया साहित्य दमत्रीं शताब्दी शालिभद्रसूरि-भरतबाहुबलिरास (सं० १२४१), पंचपाडव- के पूर्व का उपलब्ध नहीं होता। इसमे दसवी शताब्दी में चरितरास (सं० १४१०), योगीरासो (योगीन्द्रदेव) पहले हिन्दी भाषा या साहित्य की स्थिति काव्य-जगत में इत्यादि।
मानना केवल कपोल कल्पना ही होगी।