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बन तन्त्र साहित्य
गर्भोत्पत्ति विधानं बालचिकित्साग्रहोऽथसंग्रहणं । मकार: सर्वकर्म विकल्पेन सर्वसिद्धिः। विषहरणं फणि तंत्र मड 'न्यायाद्यपनपो रूजा समन ।।१३॥ यकार: सर्वाभिचार कर्म विकल्पेनाकृष्टि ॥ कृतरुग्नधोनधः प्रति विधानमूच्चाटनं च विद्वेषः । ह्री ऊ ही मृत्युनाशन ह्रीं प्रां ह्रीं पाकर्षणं । स्तभन: शांतिः पुष्टिवश्यंस्त्र्याकर्षण नर्म्य ॥१४॥ ह्री इं ह्रीं पुष्टिकर ही ई ह्रीं आकर्षणं । ___ जैन धर्म में पद्मावती, अम्बिका, चक्रेश्वरी, ज्वाला
ह्रीं उ ह्रीं बलकर ही ऊं ह्रीं उच्चाटनं ॥यादि।।
तीसरे परिच्छेद में मन्त्र साधन की विधि दी हई है। मालिनी, सच्चियमाता, सरस्वती एवं कुरूकुल्ला आदि आराध्यदेविया है । जो जिनशासन की देवियाँ कहलाती
मन्त्र साधक की क्रिया के प्रारम्भ में स्नान करके शुद्ध
वस्त्र पहन कर, मौन रह कर तथा गुरू वन्दना करके है। विद्यानुशासन में ज्वालामालिनी पद्मावती, अम्बिका
मन्त्र साधन करना चाहिए। मन्त्र साधन जिन मन्दिर में देवियों के अतिरिक्त पाम्र कुष्माड देवी का स्तोत्र एवं
अथवा नदी के किनारे, पर्वत पर, वन में अथवा शून्य मन्त्र आदि है । अम्बिका देवी के लिए ग्रंथकार ने निम्न
भवन में करना चाहिए। पद्य लिखा है।
शिष्यो मत्र क्रियारम्भे स्नानः शुद्धांवर दधत् । पुत्ररत्नवती पुत्रवर्द्धनी पुत्ररक्षिणी।
ममाहितमना मौनी प्रयुक्तगुरु वंदन ॥१॥ जैनाधिदेवता जैनमाता शामनदेवता ।
जिनालये सरित्तीरे पुलिनेपर्वने वने। अथ में २४ समुद्देश है जैमा कि पहिले कहा जा भवनेऽन्यत्र वा दशे शुभे जतु विज्जिते ।।२।। चका है। प्रारम्भ मे ग्रथकार ने परिच्छेदो की सज्ञा दी है विद्यानशासन का चतुर्थ परिच्छेद सबसे बड़ा है और तथा फिर उसे समुद्देश के नाम से सम्बोधित किया गया इसमे सकलीकरण, रक्षा, स्तम्भ, निविष, आवेश, परविद्या है। प्रथम परिच्छेद में विषय प्रतिपादन के अतिरिक्त छेदन, शाकिनी निग्रह, विषहर, स्त्री पाकर्षण, राजमन्त्र साधन का कौन सा व्यक्ति अधिकारी होता है। पूरुपादिवशीकरण, शिरोरोग, कर्णरोग, खामीनासक, इसका उल्लेख किया है मन्त्र साधक को निर्भयी, निगभि- कवित्व पडित बद्धिकारक आदि के कितने ही मन्त्र दिये मानी, धैर्यवान, अल्पाहारी, स्वच्छ हृदयवान, पापभीरू, हए है। विपहरमय इस प्रकार है - दढवत्ति, धर्म एवं दान में तत्पर, मत्राराधन में चतुर, ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय धरणेंद्र पद्मावती महिमेधावी, प्रशस्तचित्त, वाग्पटु प्रादि लक्षणों से युक्त होना ताय फणामणिमंडिलाय कमठविध्वमनाय सर्वग्रहोच्चाटनाय चाहिए।
मर्व विषहगय मर्व शातिकाति च कुरु: कुरु. ऊ ह्रा ह्रीं निर्भयो निर्मदो मंत्रजपहोमरतः सदा ।
ह. ह्रौं ह्र. असिग्राउमा मय मवंशांति कुर २ स्वधा धीर: परमिताहार: कषायरहितः मुधी ॥७॥
स्वाहा। मदृष्टिविगतालस्यः पापभीरुदृढव्रतः ।
इसी परिच्छेद में ही कार, ज्वालामालिनी, पद्मावती, शीलेन बास सयुक्त: धर्मदानादि तत्परः ।।८।।
स्जीवशीकरण, कर्णपिशाचिनी मन्त्र, शाकिनीभयोपशाति,
पार्श्वनाथ मन्त्र, गणधरवलय, कलिकुण्डकल्प, आदि के मंत्राराधनशगे धर्मदयास्वगुरुविनय शीलयुतः ।
मण्डल दिये हए है जो बहुत ही सुन्दर लिखे हुए है तथा मेधावीगतनिद्रः प्रशस्तचित्तोभिमानरतः ॥६॥
मन्त्र साधन में जिनका प्रयोग किया जाता है। देवजिनसमयभक्तः सविकल्पः सत्य वाग्विदग्धश्च ।
पांचवे समय में मन्त्र साधनविधान का वर्णन वाक्पटुरगगत शकः शुचिगमना विगतकायः ॥१०॥ किया गया है। छठे और मातवं परिच्छेद में गर्भधारण
दूसरे परिच्छेद में अक्षरों की शक्ति का दर्णन किया से लेकर जन्म तक और उमके पश्चात् भी बालक की गया है। बीजाक्षरों में कितना सामथ्र्य है इसका अथ कर्ता रक्षा के मन्त्र दिये हये हैं । गर्भरक्षामन्त्र देखिए :ने विस्तृत वर्णन किया है।
ॐ नमो भगवति गर्भावधारिणी गर्भविधृते इमं रक्ष पफकार । शांतिपौष्टिकरं वभकारस्तो भस्तंभन करोति । रक्ष स्वाहा ।