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अनेकान्त
में प्राचार्यों को विश्वास था। जैन पुराण कथा एवं हैं जिनमे विभिन्न प्रकार की रिद्धियां, वैभव एवं सुख चरित्र साहित्य का यदि हम अध्ययन करे तो पता चलेगा सम्पत्ति प्राप्त करने का उल्लेख किया गया है । कि इस प्रकार की कृतियों में मन्त्र एवं तन्त्र साहित्य को तन्त्र साहित्य सबसे अधिक संस्कृत भाषा में लिखा उचित स्थान मिला है। क्योंकि तत्कालीन समाज का हरा मिलता है। विद्यानुशासन सम्भवतः सबसे प्रसिद्ध जान की इस शाखा पर पूरा विश्वास था। इस विषय पर एवं विशाल ग्रन्थ है जो तन्त्र साहित्य पर प्राधारित है। सुन्दर प्रतिपादन, प्राचार्य एव विद्वानों द्वारा उस विषय जिनरत्नकोश में इस ग्रन्थ के कर्ता का नाम जिनसेन के को स्वीकार किये जाने आदि तत्कालीन समाज में शिष्य मल्लिषेण दिया हया है जो दसवीं शताब्दी के विद्वान उसकी लोक प्रियता की ओर संकेत करता है। कविवर थे। इसमें २४ अध्याय है तथा ५००० मन्त्रों का संग्रह सधारु ने प्रद्यम्न चरित्र में सोलह विद्याओं के नाम गिनाये हैं, है। लेकिन राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में एक और
और श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न को ये विद्याएँ सिद्ध थी, ऐसा विद्यानुशासन नाम के ग्रन्थ की उपलब्धि हुई है जिसकी उल्लेख किया है। इन विद्यानों के नाम इस प्रकार हैं- तीन हस्तलिखित प्रतियां जयपुर के दा ग्रन्थ-संग्रहालयो हृदयावलोकनी, मोहनी, जलशोखिनी, रत्नदर्शिनी, आकाश- में संग्रहीत हैं। जयपुर के दिगम्बर जैन मान्दर तेरह गामिनी वायुगामिनी, पातालगामिनी, शुभदशिनी, सुधा- पंथियों के शास्त्र भण्डार में इसकी अत्यधिक प्राचीन कारिणी, अग्निस्थम्भिणी, विद्यातारिणी, बहुरूपिणी, जल- प्रति सरक्षित है। जो संवत १४३२ की लिखी हुई हैं । इस बन्धिनी, गुटका, सिद्धिप्रकाशिका, एवं धाराबन्धिणी है।
ग्रन्थ के संकलनकर्ता हैमन्ति सागर है, जिन्होंने विभिन्न भट्टारक एवं यति, पांडे तथा उनकी शिष्य परम्परा ग्रन्थों के आधार पर इस ग्रन्थ का निर्माण किया है। की जो समाज ने अधिक मान्यता की उसका मूलकारण तथा मन्त्रों का संग्रह किया है। इस ग्रन्थ म भा २० उनकी ज्ञान शक्ति के अतिरिक्त उनकी तन्त्र एवं मन्त्र समुद्देश हैं और पूरा ग्रन्थ मन्त्रशास्त्र पर आधारित है।
। जब फिरोजशाह तुगलक ने भटारक प्रभानन्ट इमलिए जिनरलकोश में जिस विद्यानुशासन का उल्लेख का अध्यात्मिक चमत्कार देख कर उनका भव्य स्वागत है वह यही विद्यानुशासन है। और इसके संग्रहकर्ता किया तो इस स्वागत से बादशाह के एक विद्वान राघव मल्लिपेण के स्थान पर मतिमागर है। ग्रन्थ में मल्लिषेण को बड़ी ईर्ष्या हई । और उसने अपने मन्त्र बल से भटा- द्वारा रचित ज्वालामालिनी देवी का स्तोत्र है। रक की पालकी को कीलित कर दिया। लेकिन भट्रारक ग्रन्थ के प्रारम्भ में मतिसागर ने मन्त्र यन्त्र साहित्य प्रभाचन्द्र तन्त्र विद्या मे उस स अधिक बलशाली थे इसलिए से सम्बन्धित विद्यानुवाद नामक १०वें पूर्व का उल्लेख अपनी विद्या बल से पालकी को चला दिया। इसके अति- किया है । और लिखा है कि उसी विद्यानुवाद के अंगों रिक्त यमुना नदी में घड़ों की नाव से अधर ही अधर को लेकर पहिले कितने विद्वान ग्रंथों की रचना कर चुके राघव को पार कर दिया तथा अमावस्या को पणिमा हैं। इसलिए उन्हीं कृतियों के सारभाग को लेकर यह बना कर बादशाह को अत्यधिक प्रभावित किया। विद्यानुशासन नामक ग्रंथ की रचना कर रहा है। भट्टारकों के तन्त्र बल के सम्बन्ध में और भी कितनी ही तेषु विद्यानुवादाख्यो यः पूर्वो दशमो महान् । किंवदन्तियां सुनने को मिलती है। जैनों का णमोकार मंत्रयंत्रादि विषयः प्रथते विदुपां मतः ॥४॥ मन्त्र अनादि निधन मन्त्र माना गया है। और उसके तस्यांशा एव कतिचित् पूर्वाचार्यरनेकधा । स्मरण मात्र से रोगों और व्याधियो का शान्त होना स्वी- स्वा स्वां कृति समालंव्य कृताः परहितैषिभि ॥१०॥ कार किया गया है। भक्तामरस्तोत्र जनों का सबसे उद्धृत्य विप्रकीर्णभ्यः तेभ्यः सारं विरच्यते । अधिक लोकप्रिय स्तोत्र है जो अधिकांश जैनों को कण्ठस्थ एद युगीनानुद्दिश्य मंदान् विद्यानुशासनं ॥१॥ है और जिसका प्रतिदिन पाठ करने की परम्परा है । इस ग्रन्थकार ने प्रारम्भ में विद्यानुशासन में वणित विषय स्तोत्र में ४८ छन्द है और सभी छन्दों पर एक-एक यन्त्र का निम्न प्रकार उल्लेख किया है।