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जैन तन्त्र साहित्य डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल एम. ए. पी-एच. डी.
जैन प्राचार्यो मन्तों एवं विद्वानो ने प्रत्येक भारतीय एव पांच सौ महाविद्यामो व उनके साधनों की विधि भाषा में एवं साहित्य के प्रत्येक अग पर विशाल माहित्य और सिद्ध हुई विद्याप्रो के फल को बतलाया गया है। की मर्जना की है। भाषा विवाद एवं भाषा विशेष के मोह कल्पसूत्र में चौदह पूर्वो की महत्त्रता वर्णन के प्रसङ्ग में मे न पड कर उन्होने सभी भारतीय भापायो को अपनाया कहा गया है कि पूर्व प्रथम · रचे जाने के कारण महा और उनमे मभी विषयों पर माहित्य लिख कर माँ भारती प्रमाण होने के कारण नथा अनेक विद्या और मन्त्रों का की अपूर्व मेवा की। यद्यपि जैन आगमो की मुख्य भापा भन्डार होने के कारण प्वों का प्राधान्य है। इसी तरह प्राकृत रही है। लेकिन मंस्कृत में भी उन्होने कम साहित्य दिगम्बर सम्प्रदाय में उपलब्ध आगम ग्रन्थों के रचयिता नहीं लिखा । इसी तरह दक्षिण भारत की भाषाओं में भूनबलि और पुष्पदन्त के गुरू के सम्बन्ध में कथा प्रचलित भी उन्होंने अनगिनत अन्य लिख कर तमिल, कन्नड, है कि धरसेनाचार्य ने अपने दो शिष्यो की परीक्षा लेने के तेलग आदि भाषाम्रो के प्रति अपना अपूर्व प्रेम प्रदर्शित लिए दो विद्याएँ दी। एक मे अल्प अक्षर थे और दूसरी किया। काव्य, पुगण, कथा चरित्र, व्याकरण, आयुर्वेद, में अधिक अक्षर थे। विद्या साधन के विषय में प्राचार्य ज्योतिष, दर्शन, पूजा एवं स्तोत्र आदि विषयों के ममान श्री ने कहा कि इन विद्यानो की दो उपवास के साथ उन्होने तन्त्र साहित्य पर भी कितने ही गन्थ लिखे और मिद्धि कगे। अशुद्ध मन्त्र की साधना करने के कारण अपनी अमीमित तन्त्र जान एव साधना का परिचय दिया। अल्पाक्षर युक्त मन्त्र माधक के मामने कानी देवी आई तो प्रस्तुत निबन्ध में, मैं जैन तन्त्र माहि-य पर प्रकाश डाल अधिक अक्षर वाले माधक के सामने लम्बे दांत वाली देवी
पाई। देवताओं का रूप सुन्दर होना है। यह विकृत वेदों के ममान जैन धर्म में अगों की मान्यता है। प्राकृति त्रुटि को बतलाती है। इससे दोनों साधको को उनकी संख्या बारह होने में उन्हें द्वादशांग भी कहा जाता मन्त्र की अशुद्धता ज्ञात हुई। उन्होंने मन्त्र शास्त्र के अनुहै। अगो को आगम भी कहते है। ग्यारह अङ्ग और मार मन्त्री को शुद्ध कर माधना प्रारम्भ की तो देवतामो चौदह पूर्ने के ग्रहण गे द्वादमाग का ग्रहण होता है। जैन ने अपने दिव्य रूप में दर्शन दिये । उक्त कथा से यह प्रागम के एक ग्रन्थ विद्यानप्रवाद में मर्व प्रथम हमे तन्त्र जानकारी मिलती है कि जैन साहित्य में तन्त्र साहित्य को विद्या का उल्लेख मिलता है। उममें प्राट महानिमिनो काफी अच्छा स्थान प्राप्त था और मन्त्री की सिद्धि प्रादि मेनिरे नर जन्मागः फलितः सत्फलैरिमः ।।५० (युग्मम) इत्थं मप्तक्षेत्र्या बपते यो दानमात्मनोभक्या। तस्मात्दुर्गान्ममानीतात्पुस्तकाच्चकालिकात् ।
लभते तदनन्तगुणं परत्र सोत्रापि पूज्यः स्यात् ।।१४ माधुचारुभटाख्यस्य साहाय्येन च सन्मतः ॥५१ यो दनं जानदानं भवति हि म नरो निर्जरायां प्रपूज्यो । तेन वित्तेन साधन मेहाख्येन सुधीमता ।
भक्त्वा देवांगनाभि विषयमुग्यमनुप्राप्य मानुष्य जन्मा । पूर्या मिहतरंगिण्यां शास्त्रमेतत्सृलेखितं ॥५२
भक्त्वा राज्यस्य सौख्यं भवतनुग्वसुम्बा निस्पही कृत्यचित्तं,
लात्वा दीक्षां न बुध श्रुतमपि मकलं ज्ञान मन्त्यम् प्रशस्त । आत्मनः पठनार्थ व भव्यानां पठनाय च ।
ज्ञानदानात्भवेत् ज्ञानी मुग्वीम्याद भोजनादिह । श्रुतज्ञान प्रवृत्त्यं च ज्ञानावरणहानये ॥५३
निर्भयो भयतोजीवो नीरुमौपधि दानतः ।।