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शब्द चिन्तन शोध-विधाएँ
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अर्थ घोडा भी होता है१ |
सरपेन्टियर ने लिखा है कि सम्भव है यह शब्द 'खल' से सम्बन्धित रहा 'हो । परन्तु इसकी प्रामाणिक व्युत्पत्ति अज्ञात ही है। अनुमानतः यह शब्द 'सलोक्ष' का निकटवर्ती रहा है। जैसे खल-विहग का दुष्ट पक्षी के -- अर्थ में प्रयोग होता है, वैसे ही सल-उक्ष का दुष्ट बैल के अर्थ में प्रयोग हुआ हो ।
'लुक' शब्द के अनेक अर्थ निर्मुक्ति की (४८१- शिष्यों को समुक कहा गया है३।
४६४) गाथाओं में मिलते हैं
जो बैन अपने जुए को तोड़ कर उत्पथगामी हो जाते हैं उन्हें खलुंक कहा जाता है—यह गाथा ४८६ का भावार्थ है।
उपसंहार
अन्त में यह कहते हुए अपना निबन्ध समाप्त करते है कि जैन दर्शन में प्रत्येक ग्रात्मा में प्रावरणों और दोषो के प्रभाव मे सर्वज्ञता का होना अनिवार्य माना गया है। वेदान्त दर्शन मे मान्य आत्मा की सर्वजता से जैन दर्शन की सर्वज्ञता में यह पर है कि जैन दर्शन में सर्वज्ञता को प्रवृत करने वाले आवरण और दोष मिथ्या नहीं है, जबकि वेदान्त दर्शन में अविद्या को मिथ्या कहा गया है। इसके अलावा जैन दर्शन की सर्वज्ञता जहाँ सादि अनन्त है और प्रत्येक मुक्त आत्मा मे वह पृथक्-पृथक् विद्यमान रहती है अतएव प्रनन्त सर्वज्ञ है, वहाँ वेदान्त में मुक्तआत्माएं अपने पृथक् अस्तित्व को न रख कर एक बाइ तीय मनातन ब्रह्म में विलीन हो जाते है और उनकी सर्वज्ञता अन्तःकरण सम्बन्ध तक रहती है, बाद को वह नष्ट हो जाती है या ब्रह्म में ही उसका समावेश हो जाता है।
नमाया नहीं जा सकता आदि किया गया है ।
४६१वीं गाथा में हाथी के अंकुश, करमंदी, गुल्म की लकड़ी और लालवृत के टंके आदि को खलुका कहा गया है। ४१२वी गाथा में दस, मशक, जौक आदि को मनुंका कहा गया है और अन्त में
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४६०वी गाथा में खलुक का अर्थ वत्र, कुटिल, जो वाली लकड़ी या वृक्ष होता है ।
श्री सम्पूर्णानन्द जी ने अपने उद्घाटन भाषण मे जैनों की सर्वज्ञता का उल्लेख करते हुए उसे श्रात्मा का स्वभाव न होने की बात कही है। उसके सम्बन्ध में इतना ही निवेदन कर देना पर्याप्त होगा कि जैन मान्यतानुसार
४६३-४९४ में गुरु के प्रत्यनीक, शयल, प्रसमाधिकर, पिशुन, दूसरों को संतप्त करने वाले, प्रविश्वस्त श्रादि
[७] पृ० का प]
१. प्रभिधानप्पदीपिका ३७०-पोटको (तु) व (५) । २. उत्तराध्ययन, पृ० ३७२ ।
उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि दुष्ट, वक्र आदि के अर्थ में 'खलुंक' शब्द का प्रयोग होता है । जब यह मनुष्य या पशु के विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है तब इसका अर्थ-पत्र, लता या वृक्ष, ठंड गाठो
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सर्वज्ञता धात्मा का स्वभाव है और वह अर्हत (जीवन्मुक्त) अवस्था में पूर्णतया प्रकट हो जाती है तथा वह विदेह मुक्तावस्था में भी अनन्त काल तक विद्यमान रहती है । 'सत् का विनाग नही और चमत् का उत्पादन नहीं इस सिद्धान्त के अनुसार श्रात्मा का कभी भी नाश न होने के कारण उसकी स्वभावभूत सर्वज्ञता का भी विनाश नहीं होता अतएव महंतु अवस्था में प्राप्त धनन्त चतुष्टय ( अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य ) के अन्तर्गत अनन्त ज्ञान द्वारा इस सर्वज्ञता को जैन दर्शन मे शाश्वताति की अपेक्षा अनादि अनन्त थोर व्यक्ति की अपेक्षा सादि प्रनन्त स्वीकार किया गया है ।
अन्त में दर्शन परिषद् में सम्मिलित हुए सभी मदस्यो का विशेष कर उसके आयोजकों का मैं हृदय से आभारी है कि उन्होंने मुझे जैनों के अनुसार सर्वज्ञता की सभावनाएं' विषय पर जैन दृष्टि मे विचार प्रस्तुत करने का अवसर तथा समय दिया । एक बार मैं पुनः सब का धन्यवाद करता हूँ ।
हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ।
३. बृहद् वृति पत्र ५४८-५५०
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