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________________ श्रावकप्रज्ञप्ति का रचयिता कौन ? श्री पं० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री श्रावकप्रज्ञप्ति यह एक श्रावकाचार विषयक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है जो प्राकृत में रथा गया है। उसमें समस्त गाथाएँ ४०१ है। यह बम्बई के ज्ञान प्रसारक मण्डल द्वारा वि० सं० १९६१ में श्री प्राचार्य हरिभद्र विरचित संस्कृत टीका के साथ प्रकाशित हो चुका है। इस संस्करण में जो शीर्षक रूप से 'उमास्वातिवाचक कृत श्रावक प्रज्ञप्त्याख्य प्रकरण' ऐसा निर्देश किया गया है। वह सम्भवत किसी हस्तलिखित प्रति के प्राधार से ही किया गया प्रतीत होता है। इस संस्करण के प्रमुख मे ग्रन्थ के कर्तुत्व के विषय में आशंका प्रगट करते हुए उसके प्राचार्य हरिभद्र और उमास्वाति वाचक विरचित होने में पृथक्-पृथक् २-४ कारण भी प्रस्तुत किये गये है । यहाँ हम उक्त ग्रन्थ के कर्ता के विषय में कुः विचार करना चाहते हैं। उपर्युक्त संस्करण में जो उसे उमा स्वाति वाचक विरचित निविष्ट किया गया है वह कुछ भ्रान्तिपूर्ण दीखता है। यथा श्री प्राचार्य प्रवर उमास्वातिवाचक विरचित तत्त्वाafare सूत्र कुछ पाठ भेद के साथ दिगम्बर और श्वे ताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों मे सम्मान्य देखा जाता है। उसके ७ वें अध्याय में प्रास्रव तत्व की प्ररूपणा करते हुए श्रावकाचार का विशद विवेचन किया गया है१ । उसके साथ जब हम तुलनात्मक स्वरूप से प्रकृत श्रावकप्रज्ञप्ति १. पञ्चाशक टीका में जो नवांगीवृत्तिकार श्री श्रमयदेव सूरि ने उसे वाचक तिलक उमास्वाति विरचित निर्दिष्ट किया है सम्भव है उनका उससे अभिप्राय तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के अन्तर्गत इस श्रावकाचार प्ररूपण का ही रहा हो । अन्यथा, वे ही अभयदेव सूरि प्राचार्य हरिभद्रविरचित पञ्चाशक की इसी टीका में धन्यत्र पूज्यैरेवोक्तम्' जैसे वाक्य के द्वारा उसे हरिभद्रविरचित कैसे सूचित कर सकते थे ? के विषय-विवेचन का विचार करते हैं तो दोनों में हमें कितने ही मतभेद दृष्टिगोचर होते हैं, जिनसे इन दोनों ग्रन्थों के एक कलंक होने में बाधा उपस्थित होती है। वे कुछ मतभेद इस प्रकार है १ तत्त्वार्थागम सूत्र में गुणव्रत और शिक्षाव्रत का विभाग न करके जिन सात शीलव्रतो का उल्लेख किया गया है १ । उनका वह विभाग प्रवृत श्रादक प्रज्ञप्ति में रुष्टरूप से देया जाता है। तस्वार्थाभिगम सूत्र के ऊपर जो स्वोपज्ञ भाय्य उपलब्ध है उसमें भी वह विभाग नहीं देखा जाता है, प्रत्युत इसके वहीं इन व्रतों को उत्तर व्रत कहा गया है। इस प्रकार के उल्लेख से यदि भाष्यकार को उक्त मात व्रत के पूर्ववर्ती पाँच अणुव्रत मूलव्रतो के रूप में अभीष्ट रहे हो तो यह प्राध्ययजनक नहीं होगा४। इसके अतिरिक्त जिस क्रम में उन व्रतों का निर्देश सत्या दधिगम सूत्र में किया गया है उससे उनका वह अम दिग्देशानर्षदण्डविरतिसामायिकपौषथोपवासोपभोग परिभोगातिथिसविभाग प्रतपन्नश्च ० सूत्र १६, व्रत- शीलेषु पञ्च- पञ्च यथाक्रमम् ॥ ० सू० १९ । २. पंचैव अणुब्वयाई गुणव्वयाई च हुति तिन्नेव । सिक्खावयाइ चउरो सावगधम्मो दुवालसहा || इत्थ उ समणोवा मगधम्मे श्रणुव्वयगुणव्वयाइ च । भावकहियाइ सिक्वावयाइ पुरण इत्तराइ ति ॥ श्रा० प्र० ६ व ३२८ । ३. एभिश्च दिव्रतादिभिरुत्तरव्रतैः संपन्नोऽगारी वनी भवति । त० भाष्य ७ १६ । ४. स्वामी समन्तभद्र ने मद्य, मांस और मधु के त्याग के साथ उन पांच मणुव्रतों को मूल गुण ही स्वीकार किया है । र० क० ६६ ।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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