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________________ कल्पसिद्धान्त की सचित्र स्वर्णाक्षरी प्रशस्ति कुन्दनलाल जैन एम. ए. एल. टो, सा. शा. ऐतिहासिक शोषों में प्रशस्तियो का जो महत्व है। की पत्नी का नाम पूरी था जो बड़ी पुण्यात्मा थी, इनके वह किसी से छिपा नहीं है। शिलालेखों की भांति ये भी रमा, ईती, अतू, और नीनी नाम की चार पुत्रियां थीं। महत्वपूर्ण होती है, यहाँ मैं एक प्रशस्ति दे रहा हूँ जो सोने इन्हीं धीरराज ने मंडपाचलं (मांडू इंदौर) में प्राकर के अक्षरों में लिखी हुई थी तथा प्रथम पत्र पर चित्र भी एक सुन्दर विहार बनवाया था तथा एक विशाल पोषध चित्रित हैं । चित्र से प्रतीत होता है प्राचार्य श्री श्रावकों शाला भी बनवाई थी जहां माधु लोग रहा करते थे। को उपदेश दे रहे हैं । मूल प्रति का पता नहीं चल रहा है इतना तो धीरराज साहु का वंश वर्णन हमा पागे प्राचार्यों पर उसकी फोटो मेरे पाम सुरक्षित है। यह प्रशस्ति धीर की परम्परा दी हुई है। राज की है जिन्होंने मगसिर शुक्ल ५ सवत् १५२३ में कल्पसिद्धान्त लिखाया था। इस प्रशस्ति में श्वे. प्राचार्यों वर्धमान स्वामी के पद पर सुधर्माचार्य गणधर हुए की परम्परा तया धीरराज के वंशजों का उल्लेख है। यह उनके वंश की चन्द शाखा में उद्योतन मूरि हुए तत्पश्चात् प्रशस्ति २४ छदों की है जो अविकल रूप से यहाँ से वर्षमान मूरेि, जिनेश्वर सूरि जिनचन्द्र सूरि मभयदेव प्रस्तुत की जा रही है जिसका सारांश निम्न प्रकार है। सूरि जिन बल्लभ मूरि, जिनदत्त मूरि, जिनचन्द्र मूरि, जिन पत्ति मूरि, जिनेश्वर मूरि, जिन प्रवोध सूरि, जिन श्री माल वश में खोवड नाम के मंत्री थे जो सर्वगुण चन्द्र मूरि, कुशल मूरि जिन पन मूरि, जिन लब्धि मूरि, सम्पन्न थे. वही छाडा नाम के साहू थे जो बड़े पुण्यात्मा जिन चन्द्र मूरि, जिनोदय मूरि, जिनराज मूरि, जिनवद्धन ये उनके नयण और नरदेव नाम के दो पुत्र थे जो धर्मामा सूरि, जिन चन्द्र मूरि जिन सागर सूरि पौर जिन सुन्दर तथा बुराइयों को मिटाने वाले थे । नयण का पुत्र पेथड़। ____ सूरि ग्रादि इन गुरषों के उपदेशामृत का पानकर धीरराज था जो जैन धर्म का मर्मज्ञ था । दूसरे पुत्र नरदेव की पत्नी - ने जो मिद्धान्त ग्रंथों के लिखाने में मदा मावधान रहते देवल देवी इन्द्राणी सदृश सुन्दरी और प्रिय थी। नरदेव थे, सं० १५२३ मगसिर शुक्ल ५ को कल्पमिद्धान्त की और देवल देवी मे जयसिंह, गुणिया, राघव मेघराज, गण पुस्तक स्वर्ण वर्गों में लिखाई । सो उम ग्रंथ को प्रति वर्ष पति, कर्म और धर्मसिह नाम के सात पुत्र उत्पन्न हुए थे। पढ़ते पढ़ाते हुए चतुविध संघ का कल्याण होवे । इनमें से चौथे पुत्र गणपति की पत्नी गंगा देवी से वीरम पोर नाल्हराज नाम के दो पुत्र उत्पन्न हुए। प्रशस्ति को मूललिपि सातवे पुत्र धर्मसिंह की दो पत्नियां थी, प्रथम पत्नी श्रेयसे भूयसे भूयान्नाभि सुनुस्तनूमतां । राल्ह से धीर नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ था जिसने यह यन्नाम कामदं सम्यग् सुरद्रुमइवावनी ॥१॥ कल्प सिद्धान्त लिखाया था। धर्मसिंह की दूसरी पत्नी श्रीमाल इति नाम्ना भूदशो वंश इवोत्तमो । का नाम फालू था जिससे नाथू नाम का पुत्र तथा लाडकि, सुपर्वाड्येऋजो यत्रोत्पत्तिः स्यान्मौक्तिकं थियः ॥२॥ जीविणि और हक्कू नाम की पुत्रियां उत्पन्न हुई थी। खोवडाख्यभूत्रत्रामात्यं चित्र करं सतां । इन धर्मसिंह ने शत्रुजयादि तीथों की यात्रा करके तथा संख्यातिगाः गुणा. यस्य शम्य काभ्याभवन्नहि ॥३॥ महादान देकर मंधाधिपति की उपाधि धारण की थी। तत्र छाडाभिधः साधुः साधी यो गुण सेवधिः । इन्हीं धर्मसिंह की प्रथम पत्नी राल्ह से उत्पन्न धीरराज यस्त्वकृतार्थयामारान्सुकृतिः सुकृतीचिरं ॥४॥
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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