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________________ अनेकान्त निदान नहीं करना। ४. असत्याचरण की प्रशंसा-पर पाषंड प्रशंसा है। ३. रत्नत्रयी का पवित्र भाजन शरीर है, इसकी ५. असत्याचार्य का संसर्ग-पर पापंड संस्तव है। जिन्दगी को देखकर घृणा न करना निविचिकित्सा इन अतिचारों से विशुद्ध पूर्वोक्त गुणों से परिपुष्ट गुण है। ४. जिन वचनों में दृढ़ता अमूढ़ दुष्टि है। सम्यग्दर्शन जीवन का प्रकाश है। मिथ्यादर्शन जीवन ५. उपवृह्मण के स्थान में इन्होंने पांचवां गुण का अन्धकार है। जिसके १ हृदय में सम्यग-दर्शन का अगहन माना है। इसका अर्थ है जिन धर्मस्थ बालादि के प्रवाह सतत् बहता है उसके कर्म-रजों का प्रावरण हट दोष का उद्घाटन नहीं करना। जाता है। सम्यग-दर्शनर से प्रात्मा देखती है । ज्ञान से द्रव्य और उसकी पर्यायों को जानती है। सम्यक्त्व से ६. सम्यक्त्व व्रत से पतित प्रात्मानों को स्थिर करना उनपर श्रद्धा करती हुई चरित्र के दोषों को भी दूर कर स्थिरीकरण है। देती है। प्राचार्य कुन्दकुन्द की यही भावना रजनीश के ७. धार्मिक मनुष्यों के उपसर्ग का निवारण करना शब्दों में इस प्रकार ध्वनित हुई है कि-"ठीक ३ दर्शन वात्सल्य है। ८. जिन धर्म को प्रकाश में लाना प्रभावना है। ठीक ज्ञान पर और ठीक ज्ञान ठीक पाचरण पर ले जाता है। महावीर की जीवन क्रान्ति की यह विधि अत्यन्त सम्यग दर्शन को दूषित करने वाले पाँच प्रतिचार१ वैज्ञानिक और सहस्रों प्रयोगों से अनुमोदित है।" शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, परपाषड प्रशंसा, पर सम्यग्दर्शन यथार्थ मे ही साधना का अभिन्न अग पाषंडसंस्तव । है। बिना इसके केवल साधना का कोई विशेप मूल्य नही १. सत्य में संदेह शंका है। रह जाता। इसीलिए हर धर्म में सम्यग्दर्शन को २. मिथ्याचार के स्वीकार की अभिलाषा कांक्षा है। महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। ३. सत्याचरण की फल प्राप्ति में संदेह-विचि- ..." कित्सा है। १. षट् पा० दर्शन प्रा०७ २. षट् पा० चरण प्रा० १७ १. जैन सि०प्र०८-६ ३. जैन भारती १५ अगस्त १६६५ [पृष्ठ १६० का शेष इन मब विभिन्नताओं पर से लगता है कि शायद अशिक्षित और शिक्षित दोनों के अपराधों के लिए सव पहले की दण्ड व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था का हाथ रहा है व्यस्था है। इससे स्पष्ट है कि शिक्षा या बुद्धि का अपराध कि जो जितना उच्च वर्ग का हो वह अपराध कर लेने से कोई वास्ता नही। और न ही अपराधों के कारणों पर भी उतना दण्डित न हो। और बाद में अपराध की लम्बी सूची मे कही शिक्षा के भाव या प्रभाव को को अपेक्षा से जोड़ दिया गया है कि प्रशिक्षित व्यक्ति का बताया है। अपराध और निरपराध का निमित्त अन्यान्य अपराध तो फिर भी क्षम्य किया जा सकता है लेकिन वस्तुओं की भांति बुद्धि भी बन सकती है इसमें कोई शिक्षित व्यक्ति अपराध करे तो उसे दुगुणा दण्ड मिलना दोमत नहीं। चाहिए। वर्तमान में चन्द्रगुप्त के शासन-काल की भांति
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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