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सम्यम्बक
१-जिसके हृदय में सत्य के प्रति सहज श्रद्धा उत्पन्न वैदिक दर्शन में पविद्या को भव-भ्रमण का हेतु मौर होती है वह निसर्ग रुचि है।
विद्या को मुक्ति का हेतु माना है। जैन दर्शन में बंधन के २-दूसरों की प्रेरणा से जिसमें सत्य के प्रति रुचि पांच कारण माने हैं उनमें पहला कारण मिध्यादर्शन उत्पन्न होती है वह उपदेश रुचि है।
को माना है। मिध्यादर्शन, दशनमोह का प्रावरण है ३-वीतराग की आज्ञा पर जो रुचि रखता है वह किन्तु कर्म बंधन के मुख्य हेतु राग और द्वेष है। ये आज्ञा रुचि है।
दोनों चारित्र मोह की प्रकृति है। दर्शनमोह को कही ४-सूत्र पढ़ने में जिसे आकर्षण है वह सूत्र रुचि है। कर्म बंधन का हेतु नहीं माना। मिथ्या दर्शन मोह की ५-पानी में तेल बूद की तरह जिसकी रुचि एक
ही प्रकृति है फिर भी उसे कर्म बंधन का पहला? हेतु
हा प्रकृति है फिर भा पद से अनेक पदों पर विस्तार पाती है वह बीज रुचि है। माना ह
। माना है यह इसलिए कि दर्शनमोह का आवरण तभी ६-प्रत्येक सूत्र को अर्थ सहित पढ़ने का प्रयास
तक रहता है जब तक राग-द्वेष की ग्रन्थि सधन रहती अभिगम रुचि है।
है। अनन्तानुबन्धी चतुक और दर्शनमोहनीयत्रिक, ये ७-सत्य को विस्तार से पढ़ने की दृष्टि विस्तार
सातों प्रकृतियाँ सप्तपि तारों की तरह एक साथ जुड़ी
रहती है। इन सातों का विलय और उदय एक साथ में ८-बहुत ही संक्षेप से सत्य को पकड़ने वाला सम्यग
होता है इसीलिए मिथ्यादर्शन कर्म बंधन का दढ़तम हेतु दृष्टि संक्षेप रुचि है।
बन जाता है।
सम्यग्दर्शन के आट गुण माने गए है-- -सत्याचरण के प्रति प्रास्था क्रिया रुचि है।।
१. निश्शकित-सत्य में निश्चित विश्वास । १०-वीतराग प्ररूपित श्रुत-धर्म और चरित्र धर्म में
२. नि:कांक्षित-असत्य के स्वीकार में प्रमथि। जो आस्था रखता है वह धर्म रुचि है।।
३. निविचिकित्सा--सत्याचरण के फल में विश्वास । निश्चयनय से तो बीतराग ही जान सकते है कि
४. प्रमूढ दप्टि-असत्याचरण की महिमा के प्रति कौन सम्यग्दृष्टि है कौन मिथ्यादृष्टि हैं किसके दर्शन- aai | मोह का विलय हना है किसके दर्शनमोह का विषय नही
५. उपवृह्मण-प्रात्म-गुण की वृद्धि। हुमा है । व्यावहारिक दृष्टि से सम्यग्दृष्टि की तरह
६. स्थिरीकरण-मत्य में प्रात्मा का स्थिरीकरण । मिथ्यादृष्टि को भी कुछ बाह्य चिह्नों से पहचाना जा
७. वात्मल्य सत्यधर्म के प्रति सम्मान की सकता है मिथ्यादर्शन दो प्रकार का होता है
भावना। प्राभिग्रहिक मिथ्यान्व-अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व। ८. प्रभावना-प्रभावक ढंग से सत्य के महात्म्य का
श्राभिग्रहिक मिथ्यात्व मे दृढ़ प्राग्रह होता है उसके प्रकाशन । विचारों में समन्वयात्मक नीति नहीं होती। दष्टिकोण बहत प्राचार्य कुन्दकुन्द ने भी 'षट् पाहुड' में इन पाठ१ ही संकीर्ण होता है। उसकी एकान्त दृष्टि उदारता के गुणों का उल्लेख किया लेकिन इनकी व्याख्या में कुछ साथ दूसरों के विचारों का सम्मान नहीं करने देती। उसके अन्ततर है। चिनन में कूठा पलती है इसीलिए उसकी पकड़ में सत्य नहीं १. निश्शंकित का अर्थ-निर्भय रहना-सात भय प्राता । अनभिग्रहिक मिथ्यात्व में दृष्टिकोण का वैपरीन्य माने गए है उनमें किमी भय से भीत न होना। तो होता है लेकिन उसमे हठधार्मिकता नहीं होती। २. निकांक्षित-व्रतादि का दृढ़ पालन करना और
१. उत्तराध्ययन २८१७१२६ । २. जैन सिद्धान्त दीपिका प्र०४ सूत्र २०
ले. प्राचार्य तुलसी।
१. षट् पा०-चरित्र प्रा० ७॥
णिस्सक्रिय णिक्कविय णिविदिगिछायमूदादिट्ठीय । प्रवगृहण दिदि करणं वच्छल्ल पहावणायते प्रह।,