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________________ १७२ वीतराग ने कहा- क्रिया न कर सकने पर भी श्रद्धा रखने वाला सम्यग्दृष्टि है। सम्यग् दर्शन की उपलब्धि निर्हेतुक नहीं सहेतुक है। वह हेतु दो प्रकार का है। कर्म का प्रावरण टूटते टूटते सहज तस्वरुचि और सत्य के प्रति भाकर्षण पैदा होती है यह नैसर्गिक १ सम्यग्दर्शन है । अध्ययन उपदेश आदि से सत्य के प्रति आस्था जागृत होती है। यह प्रधिगमन सम्यग्दर्शन है। सम्पग्दर्शन का मुख्य हेतु तो मोह-विलय है। उपर्युक्त दो भेद केवल बाहरी परिपात्र है । सम्यग्दर्शन यथार्थ में श्रात्म जागरण प्रोर अन्तर दर्शन है। प्रन्तर दर्शन परिणाम कुछ बाहर भी प्राता है वह बाहरी परिणाम ही सम्यग्दर्शन की पहचान के लक्षण बन जाते हैं । प्रमुख रूप से सम्यग्दर्शन के पांच लक्षण माने गये हैं शम ३ संवेग - निर्वेद अनुकम्पा धारा । १. शम — सम्यग्दर्शी यथार्थ में समता प्रधान होता । है उसकी वृत्तियां शान्त होती है कपाय भाव उसे सहज ही उत्तप्त नहीं कर सकते। मानस की लगाम उसके हाथ में रहती है। बाहरी स्थितियां उसे विग्न नहीं कर सकतीं। २. सम्यग्दृष्टि भोगों में अनासक्त और विरक्त रहता है यह उसका संवेग लक्षण है । ३. निर्वेद गुण के कारण बन्धन मुक्त होने का सतत अभिलाषी बना रहता है। ४. अनुकम्पा में संसार के किसी भी जीव को वह दुखी नहीं देख सकता । उसका सबके प्रति दया भाव बना रहता है । ५. शाश्वत श्रात्म तत्त्व में विश्वास करता है । सम्यग्दृष्टि के इन पांच लक्षणों को मीमांसा करते हुए डा० हीरालाल जैन लिखते हैं कि "मिथ्यादर्शन४ को छोड़ कर सम्यग्दर्शन में पाने १. षट० पा० दर्शन प्राभृत- २२ । २. जनसिद्धान्त दीपिका प्रकरण ५-७ । अनेकान्त का अर्थ है-प्रथामिकता से धार्मिकता में माना और असभ्य जगत् से निकल कर सभ्य जगत् में प्रवेश करता है।" सम्यग्दर्शन अनेकान्त दृष्टि है। एकान्त दृष्टि मिथ्या दर्शन है । अनेकान्त दृष्टि विवेक पूर्वक विचारों को विस्तार देती है। एकान्त दृष्टि विचारों को कुण्टित करती है। जहां विचारों में कुण्ठा भाती है वहाँ श्राग्रह पनपता है । आग्रह कुतर्क को जन्म देता है । कुतर्क से बुद्धि में छेद हो जाते हैं। सत्यामृत वहां टिक नहीं सकता श्रागमों में एक पाठ आया है कि- श्रागम ज्ञानमय एक रूप है । लेकिन मिध्यादृष्टि के मिथ्या रूप में सम्यग्दृष्टि के सम्यग् रूप में परिणित हो जाते हैं। मैंने प्रथम बार जब यह पाठ पढ़ा तो लगा धागमों में क्या जादू है ? मिश्री कोई भी खाए खाने वाले का मुह मीठा होगा ही। किन्तु अब कुछ समझ में भा रहा है कि वस्तु अच्छी मे अच्छी है लेकिन उसे परिणित करने की क्षमता अपनीअपनी होती है। गाय का दूध मनुष्य के शरीर में अमृत सर्प के उदर में विष बन जाता है। ऐतिहासिक तथ्यों से स्पष्ट होता है कि यह मान्यता न केवल जैन दर्शन में ही बल्कि बौद्ध दर्शन मे भी रही है। एक बार राजा श्रनुरुद्ध ने बौद्ध धर्म का प्रचार करना चाहा । उसने अपने एक चतुर मन्त्री को थानोत के राजा मनोहर के पास भेजा किन्तु मनोहर का जवाब था कि - " तुम्हारे जैसे मिथ्यादृष्टि के पास त्रिपिटक नहीं भेजी जा सकती । केसरी सिंह की चवी सुवर्ण पात्र में रखी जा सकती है मिट्टी के पात्र में नही ।" १ प्रत्येक व्यक्ति की रुचियां भिन्न-भिन्न होती है। सम्यदृष्टि की रुचियों के दस प्रकार भागम में उल्लिखित हैं । निसर्ग - रुचि, उपदेश - रुचि, प्राज्ञा-रुचि, सूत्र- रुचि, बीज-रुचि, अभिगम-रुचि, विस्तार-रुचि, मिया-रुचि, संक्षेप-रुचि और धर्म- रुचि २ । ३. जैन सिद्धान्त दीपिका प्र० ८ सू० ६ । ४. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योग स्थान-१० २२४ २. उत्तराध्ययन] २८।१६. १. बौद्ध संस्कृति पृ० २१, लेखक राहुल सांकृत्यायन ।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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