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________________ सम्यापन भोग कर बहुत ही शीघ्र नष्ट कर देती है। दूसरे पुत्र में उसका प्रदेशों में जो अनुभव होता है वह बेदक सम्यग् को वहीं दबा देती है। दोनों के बीच में जो व्यवधान है दर्शन है। वह अन्तर करण कहलाता है । इसके प्रथम क्षण में अन्तर सम्यग्दर्शन पौर सम्यग्ज्ञान का अभिन्न सम्बन्ध दर्शन व सम्यग् दर्शन की उपलब्धि होती है। यह प्रोप- है। प्राचार्य रजनीश के शब्दों में सम्यग शान का बीज है। शमिक सम्यग् दर्शन है। इसकी स्थिति केवल मन्तमहर्त इस कथन में एक वैज्ञानिक विश्लेषण भी है क्योंकि ग्व तक मनुष्य की प्रास्था नहीं होगी दृष्टि में विपर्यास रहता कुछ प्राणी पोपशमिक सम्यग दर्शन को प्राप्त किए है तब तक वस्तु का सही ग्रहण नहीं होता। मुविनीत पुत्र बिना ही सीधे अपूर्व करण से ग्रन्थि के घटक मिथ्यात्व की मां के प्रति प्रास्था होती है इसलिए वह उसके हर दलिकों को तीन पुजों में विभक्त कर देते हैं। कटु उपालम्भ को भी ठीक ग्रहण करता है। प्रविनीत प्रशुद्ध पुज-मषं शुद्ध पुज-शुद्ध पुज पुत्र की मां के प्रति प्रास्था हिल जाती है इसलिए वह अशुद्ध पुञ्ज में अन्तर दर्शन नहीं के बराबर है। उसके हर शब्द को और हर व्यवहार को प्रन्यथा ग्रहण अर्घ शुद्ध पुज में अन्तर दर्शन की धुंधली मी सेवाएँ करता चलता है । कदम-कदम पर उसके सही पर मे भी उसे संशय होता है। यह उसका दृष्टि निर्णय ही है। प्रकट होती है। इन दोनों पुजों को प्रात्मा खत्म कर देती है । शुद्ध पुञ्ज में मिथ्यात्व दलिकों का उदय रहता प्राचार्य कुन्दकुन्द सम्यग् दर्शन और ज्ञान के तादात्म्य सम्बन्ध को बडी सुन्दर-सुन्दर उपमानों से उपमित करते है लेकिन उनकी पावरक शक्ति को नष्ट कर दिया जाता है। इस स्थिति मे आत्मा को जो सम्यग् दर्शन होता है हुए लिखते हैं जैसे फूल १ सुगन्धमय और दूध घृत मय उसे क्षयोपशम सम्यग् दर्शन कहते है। होता है सम्यग् दर्शन वैसे ही सदा ज्ञानमय होता है। कुछ परम्पराएँ सम्यग्दर्शन और सभ्यक्रिया को ___कुछ आत्माएँ मिथ्यात्व दलिकों को समूल नष्ट कर । प्रभेद मानती है । उनको दृष्टि में सम्यग्दृष्टि व्यक्ति के देती हैं । उसे क्षायक सम्यग् दर्शन की प्राप्ति होती है। कोई पाप का बन्ध नहीं होता। कुछ परम्पराएँ सम्यगउपशम सम्यग् दर्शन और क्षयोपशम सम्यग् दर्शन, दर्शन के साथ ही मोक्ष लाभ मानती हैं। योगवाशिष्ट में इन दोनों के पौवापर्य क्रम में दो मान्यता है-सिद्धान्त स्पष्ट लिखा हैपक्ष में पहले क्षयोपशम सम्यग्दर्शन की उपलब्धि मानी ज्ञाति हिर ग्रन्थि-विच्छेद तस्मिन् मति ही मुक्ततागई है और कर्म पक्ष में पहले प्रौपशमिक सम्यग्दर्शन की सम्यग ज्ञान कर्म ग्रन्थि का विच्छेद है। वह होते ही प्रामा उपलब्धि । लेकिन अपनी इस मान्यता में दोनो के ही पास कोई अकाट्य तर्क नहीं है। इसलिए कई प्राचार्य मुक्त हो जाती है। दोनों विकल्पों को ही मान्य कर लेते हैं। जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन और सम्यक् क्रियामे भेद माना है। सम्यग्दर्शन दर्शनमोह का अनावरण है और सम्यग्क्षायिक सम्यग्दर्शन कभी पाने के बाद वापस नहीं क्रिया चरित्र मोह का। प्रतः सम्यग्दृष्टि का मभा जाता और प्रौपशमिक सम्यग् दर्शन कभी भी अन्तर्मुहुर्त क्रियाएँ विशुद्ध ही हों, यह अनिवार्य नहीं है। प्राचार्य से अधिक टिकता नही है। खीर का भोजन कर लेने के कुन्दकुन्द इमी तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहने हैबाद भी जिह्वा पर कुछ क्षण तक मीठा स्वाद रहता है जं सक्कातं कोरइ जंचन सस्का तं च सदहणं । इसी प्रकार प्रोपशमिक सम्यग्दर्शन में गिर जाने के बाद केवलि जिहि भणियं सद्दहमाणस सम्मतं ॥ भी मिथ्यात्व प्राप्ति से पहले छह प्रावलिका पर्यन्त सम्यग जिसके लिए समर्थ है उसे करता है। जिम धर्म दर्शन का प्राभाम रहता है उसे सास्वादन सम्यग् दर्शन क्रिया को नहीं कर सकता किन्तु उस पर श्रद्धा रखता है कहते है। क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन से क्षायिक सम्यग्दर्शन १. षट् पा० बोध प्रा०-५। को प्राप्त करते समय पूर्व सम्यग्दर्शन के अन्तिम समय २. उत्पत्ति प्रकरण, सर्ग ११८ ।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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