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________________ अनेकान्त भी उन्होंने यही तथ्य व्यक्त किया-जीव, अजीव १, पुण्य, वाला चारित्र मोह है। और दृष्टि में धान्ध्य पैदा करने पाप, पाश्रव, सवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष इनका भूतार्थ वाला दर्शन मोह । [वास्तविक दृष्टि से ज्ञान होना सम्यग् दर्शन है। कर्म बन्धन के अनन्य हेतु हैं राग-द्वेष-ये दोनों मोह सूक्ष्म दृष्टि से सम्यग्-दर्शन पर विश्लेषण करते हुए की प्रकृति हैं । मोह की उत्कृष्ट स्थिति में राग-द्वेष की लिखा-प्रात्मा२ का प्रात्मा में रमण सम्यग्दर्शन है। प्रन्थि दुर्भद्य बनी हुई रहती है। यह प्रन्थि ही अन्तर जो स्व३ द्रव्य में रमण करता है वह सम्यग् दृष्टि है दर्शन और सम्यग्दर्शन में बाधक है। प्रभव्य प्राणियों मे जो पर द्रव्य में रमण करता है वह मिथ्यादृष्टि है। इस दुर्बध्य ग्रन्थि को छिन्न-भिन्न करने की क्षमता नहीं समयसार में लिखा है-समग्र४ व्यवहार भूतार्थ होती: कुछ भव्य प्राणी भी अभव्य के समान ही होते है प्रियथार्थ] है। भूतार्थ केवल शुखनय है। जो शुद्ध नय जो दस यथि को मटी कर पाते। के आश्रित है वही सम्यग्दृष्टि है। पर्वत से चलने वाली नदी मे कुछ पापाण टक्करें इन समग्र व्याख्याओं का संक्षेप में निष्कर्ष देते हुए खाते-खाते सहज चिकने और गोल बन जाते हैं, इसी दा-जीवादि५ तत्त्वों पर श्रद्धा करना सम्यक्त्व है यह तो प्रकार भव भ्रमण करते कुछ प्राणियों के सहजतः मायुष्य व्यवहार दृष्टि है । निश्चय दृष्टि से तो प्रात्मा ही सम्या को छोड़कर शेष सात कर्मों की स्थिति एक कोड़ा कोड़ क्त्व है । प्रात्मा ही ज्ञान है। प्रात्मा ही दर्शन है। सागर से भी कुछ कम रह जाती है तब वे विशेष शुद्ध प्रात्मा ही चरित्र है। प्रारमा ही प्रत्याख्यान है। अध्यवसायों में इस ग्रन्थि के समीप पहुँचते हैं उन अध्यसंवर और योग भी मेरी प्रात्मा है। वसायों को यथा प्रवृत्ति करण कहा जाता है यह करण धर्म समुच्चय में सम्यक्त्व और सम्यग् दर्शन में भव्य और प्रभव्य प्राणियों के अनेक बार होता रहता है । रण कार्य भाव माना है-'तस्वार्थ श्रद्धान सम्यक्त्वस्य कुछ प्रात्माएँ प्रन्थि के निकट पाने के बाद भी दुम दबा कार्य, सम्यक्त्वं तु मिथ्यात्व-क्षयोपशमादिजन्यः शुभा- कर उल्टे पैर वापस लौट जाती हैं। कुछ प्रात्माएँ वहीं त्म परिणाम विशेष'-तत्त्वों के प्रति श्रद्धा सम्यक्त्व का खड़ी रहती है लेकिन ग्रन्थि को तोड़ने का उनमे साहस कार्य मिथ्यात्व के क्षयोपशमादि से उत्पन्न शुभात्म नहीं होता। कुछ प्रात्माएँ साहसिक होती हैं वे ग्रन्थि परिणाम सम्यक्त्व है। को तोड़ने का प्रयत्न करती हैं। उनके मध्यवसायों में सम्यग्दर्शन को समझने के लिए उसके उत्पन्न होने ऐसा प्रबल वेग पाता है जैसा पहले कभी नहीं पा पाया की प्रक्रिया को समझना बहुत महत्त्व का है। था। इसलिए इन परिणामों को अपूर्व करण कहा जाता अनादि काल से प्रात्मा पर कर्मावरण के परत चढ़े है। इससे वे प्रात्माएं प्रागे बढ़ती हुई अन्थि को तोड़ हुए हैं। सबसे सघन परत मोह का है। अन्य कर्मावरणों देती हैं। यह अवस्था हरिभद्र के शब्दों में मार्गाभिमुख में भी सघनता पैदा करने वाला मोह कर्म है। मोह कर्म अवस्था है। में दो प्रकार की क्षमता है वह चारित्र को विकृत बनाता प्रात्मा फिर प्रागे बढ़ती है। शुभ मध्यवसायों में है और दृष्टि को मूढ़ । चारित्र में विकार उत्पन्न करने प्रबलतम वेग पाता है। यह वेग ऐसा है जो साहसिक सैनिक की नाई सम्यग् दर्शन की उपलब्धि के बिना मुह १. समयसार नहीं मोड़ता । इसे अनिवृत्ति करण कहते हैं। इस करण २. षट् पा०-भाव प्रा० ३१ । में आगे बढ़ती हुई प्रात्मा मिथ्यात्व दलिकों को दो भागों ३. षट् पा०-मोक्ष प्रा. १४ । में विभक्त कर देती है। ४. समयसार ११। पहला भाग पल्प स्थितिक होता है । दूसरा भाग दीर्घ ५. षट् पा०-दर्शन प्रा. २०। स्थिति, का अल्प स्थितिक भाग को उदीरणा के माध्यम से ६. षट् पा०-भाव प्रा० ५०। ७. धर्म समुच्चय दूसरा अधिकार । १. जैन सिद्धान्त दीपिका प्रा०प्र०५-सूत्र ८८ ।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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