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________________ सम्यग्दर्शन साध्वी श्री संघमित्रा दर्शन शब्द अनेक प्रों में अधिष्ठित है। गौतमबुद्ध अविद्या है। नित्य और पवित्र मानना विद्या है। ने निर्विकल्प अवस्था को दर्शन कहा है । पर्वाचीन जनदर्शन में सम्यग्दर्शन का वैज्ञानिक विश्लेषण दार्शनिकों ने परिशोधित विचारों को दर्शन संज्ञा से अभि- हमा है। कर्मावरण [प्रनन्तानुबन्धी चतुष्क पौर दर्शन हित किया है। जैन दर्शन मे दर्शन शब्द के दो अर्थ त्रिका के दूर होने से शुद्ध परिणमन और अन्तर-दर्शन विहित हैं। प्रात्मा होता है यह सम्यक्त्व है। सामान्य बोष-श्रद्धान ___ सम्यक्त्व का फलित रूप है वस्तु का यथार्थ ग्रहण, प्रस्तुत प्रकरण में विवेच्य श्रद्धानार्थन दर्शन शब्द है। रुचि और विश्वास । इन तीनों का समन्वित रूप सम्यग जैन दर्शन में प्रात्मा की जिस श्रद्धा को सम्यग दर्शन दर्शन है। और मिथ्या दर्शन कहा है उसी को वैदिक दर्शन में विद्या- प्राचार्य कुन्दकुन्द ने सम्यग-दर्शन के इस द्विविध रूप अविद्या बौद्ध दर्शन में मार्ग, योग दर्शन में विवेक-ख्याति को विविध दृष्टिकोणों से प्रस्तुत किया है । स्थूल दृष्टि से और भेद ज्ञान कह कर पुकारा है। सम्यग-दर्शन का निरूपण करते हुए लिखादर्शन अपने पाप में सम्यग-असम्यग् नहीं है किन्तु छह द्रव्य२, नव पदार्थ, पांच प्रस्तिकाय पोर सात "वस्तु परक होते ही वह सम्यग्-मिथ्या बन जाता है। तत्त्व, इन पर जो यथार्थ श्रद्धा करता है वह सम्यग् वस्तु के यथार्थ स्वरूप में परिणति उसे सम्यग् और प्रय- दृष्टि है। थार्थ स्वरूप में परिणति उसे मिध्या बनाती है" सम्यग् जिन प्रणीत ३ सत्रार्थ को, जीव अजीव प्रादि विविध दर्शन की इस परिभाषा में किसी का मत द्वैत नहीं है प्रर्थों को और हेय-उपादेय को जानता है वह सभ्यगलेकिन वस्तु का स्वरूप निर्णय सबका भिन्न-भिन्न है। दष्टि है। इसीलिए सम्यग दर्शन का स्वरूप भी दार्शनिक परम्पराओं सम्यग्-दर्शन की व्याख्या को अधिक सरल करते में पार्थक्य लिए हुए है। हुए कहाबौद्ध दर्शन में प्रत्येक पदार्थ को क्षण-क्षयी माना है। हिंसा रहित४ धर्म में, अठारह दोष विवजित देव में उनकी दृष्टि में कोई भी पदार्थ एक क्षण के बाद टिकने और निग्रन्थ प्रवचन में जो श्रद्धा करता है वह सम्यगवाला नहीं है। वस्तु-स्वरूप के इस निर्णय के अनुसार दुष्टि है। मार्ग की परिभाषा देते हुए उन्होने कहा-सब संस्कार तत्त्व रुचि सम्यग्दर्शन५ है। मम्यक्त्व६ पर जो क्षणिक है, इस प्रकार की दृढ़ वासना [भावना] का नाम चिन्तन करता है वह भी सम्यग्दृष्टि है। समय सार में ही मार्ग है। __ योग दर्शन मे मात्मा को नित्य और पवित्र माना है १. पातञ्जल योगमार मूत्र ५। अत उनकी दृष्टि में मनित्य और अपवित्र आत्मा को मानना २. पट् पा० दर्शन प्राभृत १६ । ३. वहीं मूत्र प्रा०-५। १. षड् दर्शन समुच्चय ग्लोक ७ १. पट्क पा० मोक्षप्राभूत ६० । क्षणिका सर्व संस्कारा इत्येवं वासना यका स मार्ग इह २. वही, ३८ विज्ञेयो निरोधो मोत्त उच्यते । ३. वही, ७
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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