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अनेकान्त
हम अपराधों की भोर उन्मुख होते हैं उन पर शिक्ष अपराध सिखाने में भी सहायक हो सकता है और मिटाने मार्गान्तरीकरण के द्वारा किस प्रकार काबू पा लेती है वहाँ में भी । शिक्षित को सैनिक तैयारी में जोड़ देती है। इसी तरह अपराधों का इतिहास लड़ने, झगड़ने की मूल प्रवृत्ति द्वारा बीमा, बैक कम्पनियों अपराध का इतिहास बहुत पुराना है। करोड़ों वर्ष
और मकानों का आविष्कार करती है। शिक्षा मनोवृत्तियों पूर्व की दण्ड व्यवस्था 'हाकार' 'माकार' धिक्कार तथा को प्रभावित करती है इस तथ्य से न तो मनोविज्ञान ही इसके बीच की अनगिन दण्ड व्यवस्थाओं तथा वर्तमान इन्कार हो सकता है और न हम ही। शिक्षा से अनुभव मनोवैज्ञानिक दण्ड पद्धतियों के प्राधार पर जान पड़ता है अजित होते हैं । अनुभवों से अच्छे बुरे नगण्य मूल्यवान् कि अपराध हर समय रहे है फिर चाहे वह बौद्धिक युग का भेद ज्ञान होगा और उससे हमारे निर्णय बुद्धिमत्ता हो या अबौद्धिक तथा सभी वर्गों व सभी देशो मे रही हैं। पूर्ण होंगे। अगर ऐसा न माने तो शिक्षा मनोविज्ञान का महाभारत, स्मृतियाँ, उपनिषद् तथा तत्कालीन अन्य कोई अर्थ ही नहीं ! लेकिन फिर भी शिक्षा को हम साहित्य इसका पुष्ट प्रमाण है। छान्दोग्य उपनिषद् में प्रभावोत्पन्न तक ही सीमित रख सकते हैं। इससे शिक्षा अश्वपति कैकेय का यह दप्त कथन कि "न मेरे१ राज्य और पाचरण के बीच गठबन्धन नहीं कर सकते। में चोर है, न मद्यप है, न क्रिया हीन है, न व्यभिचारी
जैन दर्शन ने ज्ञान, दर्शन और क्रिया को सापेक्ष माना और अविद्वान है" निस्मदेह एक प्रकार की प्रत्युक्ति का है । लेकिन इसमें भी तारतम्य है। हमारा शान मस्तिष्क का नमूना है । रमाशंकर त्रिपाठी ने भी अपने प्रथ'प्राचीन की उपज है । प्रास्था प्रात्मा की अवस्था है और क्रिया भारत का इतिहास' में इस विषय का विश्लेपण अनेक उसी की परिणति । इससे भी प्रास्था और क्रिया के बीच प्रमाणों के साथ दिया है । यह दूसरी बात है कि शाश्वत निकटता व्यक्त होती है न कि ज्ञान और क्रिया के बीच। बुराइयों में देश और काल से रूपान्तरण होता रहता ही है।
कई लोग बौद्धिक क्षेत्र में अपराधों की मात्रा अधिक यह एक तथ्य अवश्य ही कुछ मीमांसा चाहता है कि देखकर यह भी अनुमान लगाते हैं कि बुद्धिवाद ने अपराधों प्राचीन, मध्यम मौर वर्तमान युग की दण्डदान-प्रक्रिया में को बढ़ावा दिया है । अनपढ़ या प्रशिक्षित में आस्था के बहुत बड़ा अन्तर पाया जाता है। कौटिल्य ने एक ही भाव प्रबल होते हैं अतः वे अपराध करते हिचकते है और अपराध करने वाले शूद्र हीनों के लिए अपराध के अनुपात शिक्षितों की प्रास्था विघटित होती है इसलिए वे कुछ भी में अधिक दण्ड की व्यवस्था की है वहाँ वही अपराध करते नहीं सकुचाते। ऐसी विचारधारा के लोगों ने ही करने वाले या घोर अपराध करने वाले भी ब्राह्मण आदि सुकरात पर ऐसा लांछन लगाया था कि “सुकरात ने बच निकलते थे या फिर स्वल्प मात्रा में दंडित होते थे। अपनी शिक्षा से एथेन्स के नवयुवकों को पथभ्रष्ट कर दिया मनु ने इससे विपरीत किया है। सामान्य अपराध के है।" लेकिन इस विचारधारा में तथ्य नहीं लगता। लिए एक साधारण नागरिक को एक कार्षापण से दंडित वस्तुत बुद्धिवाद न अपगध का सर्जक है और न विसर्जक बतलाया है और राजा प्रादि प्रभावशाली व विवेकशील ही। वह हमारे सामने प्रच्छाइयों और बुराइयों दोनों का व्यक्तियों को हजार कार्षापण से। लेकिन ब्राह्मणों को ही चित्र उपस्थित करता है। हमारी मनोवत्तियाँ जिसको इन्होंने भी छूट दी है। राजा चन्द्रगुप्त ने सामान्य चाहे पकड़ ले, वह तटस्थ है। फिर भी बुद्धि पर अपगध नागरिक और ब्राह्मण के अपराधी सिद्ध होने पर समान की कुछ जिम्मेवारियाँ अवश्य पाती है। वे ही काम पशु व्यवस्था की है । वैसे ब्राह्मण का सम्मान अधिक भी रखा करते है अपराध की कोटि में नहीं पाते और वे ही जब जाता था।
(शेप पृ० १७४ पर) मनुष्य करते हैं तो अपराधी गिने जाते है। क्योंकि वे --~-- बुद्धिशील प्राणी हैं । अतः हमे मानना चाहिए बद्धि विकास. १. नमे स्तेनो जनपदे, न कदयो न मद्यपः
नाना हिताग्नि नचाविद्वान् न स्वेरी स्वैरिणी कुताः १. धर्मयुग १९६४ अगस्त (पुनर्मूल्यांकन शीर्षक लेख से)
(म० उ०५०,११)