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________________ १७६ तस्य सुतौ नगुणास्य नरदेवाभिधी सुतौ । मूर्त मंती धर्मभेदविवाशिवभवापही ॥५॥ नयणारव्यस्यात्मजो जज्ञे प्रथियान पेथडः श्रिया । जिन यन्मनोभोजे राजहंसीव खेलति ॥६॥ प्रियाश्रिया शची वासीन्नरदेवस्य शस्य धरस्य । देवल देवीति धर्म कर्म सुकर्मणः ॥७॥ सप्त मूर्ताः इवाभवन् सुखभेदाम्नायोः सुताः । तत्राद्यो जयसिहारव्यो द्वितीयो गुणियाभिधः ।।८।। राघवो मेघराजश्च ततोगणपतिर्वरः । षष्ठः कर्माभिधः साधुधर्मसिंह सुसप्तमः ॥९॥ पुत्रौ गणपतेगंगादेवि कुक्षि समुद्भवौ । वीरमोनाल्हराजश्च पुत्रसंतति. संश्रितौ ॥१०॥ प्रियाद्या धर्मसिहस्य राल्ह धीराभिध. सुत. । फालू नाम्नाद्वितीयातु नाथू (घू) संज्ञस्त दात्मजः ॥११॥ लाडकि जीविरिणश्चैव हक्कू मंज्ञाश्च पुत्रिकाः । धर्मसिंहः क्षिती भातीत्यादि संतति शोभितः ॥१२॥ शत्रुजयादि तीर्थेषु यात्रां कृत्वाति विस्तरां । धर्मसिंहो महादानैर्धन्यः संघाधिभूरभून ॥१३॥ धीरारख्यस्य प्रियापूरी पुण्य संभारपूरिता। रमा ईती अतू नीनी पुत्रीभिः परिवारितः ॥१४॥ साधुः श्री धीरराजे नागत्य श्री मंडपाचले । विहारः कारयामास मनोहारी मनस्विनां ॥१५॥ रम्यां पौषधशाला च विशाला पुण्य संपदाम् । कारयित्वाकारि स्वकीय गण संस्थिति ॥१६॥ इतश्च श्रीवर्धमान पट्टेऽभूत्सुधर्मागणभृद्वरः । तद्वंशे चन्द्रशाखायां सूरि उद्योतनो भवेत् ॥१७॥ श्री वर्धमानसूरिजिनेश्वरः सूरिराज जिनचंद्र । प्रभयादिदेव सुगुरुजिन बल्लभसूरिः जिनदत्तौ ॥१८॥ जिनचन्द्रः सूरीन्द्रो जिनपत्ति जिनेश्वरी गणाधीशौ। सूरिजिनप्रबोधो जिनचन्द्रः सुजिन कुशलेशाः ॥१६॥ जिनपद्म जिनलब्धि जिनचंदजितोदयादिसूरीन्द्री। जिनराजो जिनवर्द्धन सूरिजिनिचंद्र सुगुरुश्चा ॥२०॥ श्री जिनसागर सरिः सागर इव भातिलब्धिरत्नोधिः। श्री जिनसुन्दर सूरिविजयी जिनहर्प सूरीशः ॥२१॥ एतद्गुरूणां उपदेशे तेषां पीयूषयूषपरिपीय तोषान् । श्रीधीरराजो भुविलक्षयुद्धसिद्धान्तमलेखनसावधानः ।।२२।। संवत्सरे नेत्र करेन्द्रियेन्दुभिः ते मार्ग सित पंचमेह्नि। प्रली लिखत सारसुवर्णवर्णः श्रीकल्पसिद्धान्तसुपुस्तकंबो ॥२३ वाचंयमैः वाच्यमानः प्रत्यन्दं पुस्तकं त्विदं । नंदता गुरुतांच्चात्र संघेश्रेयः परं परं ॥२४॥ इति प्रशस्ति श्रीः अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना स्यातिप्राप्त शोष-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों और जनश्रुत को प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बनें और दूसरों को बनावें । और इस तरह जैन सस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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