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अतिशय क्षेत्र प्रहार
श्री नीरज जैन
महार के मन्दिर में स्थित, तेरहवीं शताब्दी (१२३७ शांतिनाथ मन्दिर विक्रमाब्द) की प्रतिष्ठित, चक्रवर्ती तीर्थकर भगवान
इस मन्दिर का निर्माण एक ऊँचे अधिष्ठान पर स्थाशान्तिनाथ की बारह हाथ ऊँची खड़गासन प्रतिमा के
नीय दानेदार पत्थर (ग्रेनाइट स्टोन) से हमा था। शिखर कारण यह क्षेत्र अपना अनूठा महत्व और विशेष स्थान
तथा मण्डप से सज्जित नागर शैली का यह एक पंचायतन रखता है। अमर शिल्पी पापट द्वारा निर्मित, अपनी
मन्दिर रहा होगा। किसी समय मूल मन्दिर के क्षतिग्रस्त प्रोपदार पालिश के कारण प्राज भी चमचमाती हुई यह
हो जाने पर ईट चने से (सम्भवतः १७वीं शताब्दी में) शानदार और लासानी मूर्ति इतनी आकर्षक और विशाल
इस देवालय का पुननिर्माण हुमा होगा जो शीघ्र ही फिर लगती है कि इसे उत्तर भारत का गोम्मटेश्वर कहा जा
जीर्ण हो गया और उपेक्षित पड़ा रहने के कारण बन के सकता है।
लता गुल्मों से पाच्छादित हो गया। इधर जैसे जैसे यह महार किसी जमाने में भले ही एक विशाल और
क्षेत्र प्रकाश में पाया, मन्दिर की मरम्मत प्रादि होती रही
पर उसे इतनी विशाल और सौम्य मूर्ति के अनुरूप भव्य समृद्ध नगर रहा हो पर काल के चक्र में उलझ कर यह
नहीं बनाया जा सका । अत्यन्त हर्ष की बात है कि श्रावक स्थान पूरी तरह प्रोझल लुप्त और हो गया तथा बहुत समय
शिरोमणि, दानवीर साहु शान्तिप्रसाद जी की उदार दृष्टि तक विस्मृति के गर्भ में अपनी कलानिधियों के साथ हमारी दृष्टि के परे पड़ा रहा । आज से लगभग पैतीस
इस पोर दिलाई गई और उनकी सहायता से इस मन्दिर वर्ष पूर्व इस स्थान का ज्ञान पास पड़ोस के श्रावकों को
का पुननिर्माण प्रारम्भ हुआ है । गर्भगृह तो शिखर सहित
निर्मित भी हो चुका है, केवल मण्डप और प्रदक्षिणा पथ हुग्रा और झाड़ झंखाड़ से घिरा यह प्राचीन मन्दिर धीरे
का कार्य शेष है जो यथा सम्भव शीघ्र सम्पन्न होगा ऐसी धीरे प्रकाश में आना प्रारम्भ हुमा। यहां की व्यवस्था
सम्भावना है। यह निर्माण देशी लाल बलुमा पत्थर से तथा तात्कालिक स्थिति का संक्षिप्त परिचय देते हुए श्री
उसी प्राचीन शैली से हुआ है और उसमें मध्ययुगीन यशपाल जैन ने आज से पच्चीत वर्ष पूर्व (अनेकात अप्रैल
वास्तुकला की भव्यता बहुत कुछ सुरक्षित रह सकी है। १९४१) में लिखा था कि जिन सज्जनों को उक्त तीर्थ की यात्रा करना हो वे टीकमगढ से या तो पैदल जाएँ अतिशय मन या बैलगाड़ी से । मोटर का सहारा तो भूलकर भी न इस मन्दिर के गर्भगृह में मूलरूप में तीन खड्गासन ले। इतने धक्के लगते हैं कि सारा शरीर चकनाचूर हो प्रतिमाएँ स्थापित की गई थीं। बीच में बारह हाथ के जाता है।" उस ममय तक प्रहार में यात्रियों के ठहरने शान्तिनाथ तथा दोनों पोर पाठ हाथ ऊंचे कथुनाथ और की भी कोई व्यवस्था नहीं थी, पर अब स्थिति वह नही अरहनाथ । कथनाथ की प्रतिमा मम्भवत मन्दिर के रही है। अब तो क्षेत्र के परकोटे तक पक्की सड़क बन क्षतिग्रस्त होने पर उसी के साथ नष्ट हो गई होगी। यहाँ गई है और टीकमगढ़ तथा छतरपुर से प्रतिदिन बिना अब उसी प्रकार की एक नवीन मूर्ति स्थापित कर दी धक्के की मोटरे पाती हैं । दर्शनार्थियों को ठहरने के लिए गई है। शेष दोनो मूर्तियों के कुछ अंगोपांग खण्डित हो भी धर्मशाला, रसोईघर कुमां आदि की पर्याप्त और अच्छी गए थे जिनकी मरम्मत सीकर के एक दक्ष शिल्पी श्री सुविधा है।
श्रीनारायण द्वारा बड़ी कुशलता के माथ कर दी गई है।