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________________ अनेकान्त वास्तव में बड़ी मूर्ति में नये प्रग जोड़कर उसका पालिश महत्त्वपूर्ण भेद मिला है-जो विद्वानों की दृष्टि प्राकर्षित मिला देना एक कठिन कार्य था जो इस शिल्पी ने बड़ी करेगा । सफलता पूर्वक कर दिया है। मन्दिर का निर्माण भी श्री कोठियाजी के अनुसार तीसरे श्लोक का तीसग श्रीनारायण के निर्देशन में ही हो रहा है। चरण येन श्री मदनेशसागरपुरे तज्जन्मनो निम्मिमेएक गौरवपूर्ण भूतिलेख पढ़ा गया है जिसका अर्थ भी उन्होंने-"अपने जन्मस्थान भगवान शांतिनाथ का इस मूर्ति पर नीचे जो शिला श्री मदनेश सागर पुर में बनवाया था" ऐसा किया है। लेख अंकित है वह कई दृष्टियों से विशिष्ट और महत्त्व जनश्रुति के अनुसार यह मन्दिर पाणाशाह नामक श्रेष्ठि पूर्ण है । यह लेख दो शिल्पियों ने अंकित किया है, जिनमें ने बनवाया था। इस स्थान पर पड़ाव डालने पर कहा ऊपर की पंक्तियां बड़े सुडौल और सजावट पूर्ण अक्षरों जाता है कि उसका सारा रांगा चांदी में परिणत हो गया में उत्कीर्ण है । अन्त की ३-४ पंक्तियों के प्रक्षर साधा था प्रतः उसी द्रव्य से इसका निर्माण हमा। यदि इस रण हैं और ऐसा लगता है कि प्रतिष्ठा के उपरान्त यह श्रुति में जरा भी तथ्य है तो वह पाणाशाह एक ऐति. पक्तियां उत्कीर्ण की गई होंगी। हासिक महापुरुष और प्रसिद्ध व्यापारी थे; परन्तु उनका लेख की भाषा अत्यन्त ललित और अलकृत है तथा जन्म स्थान मदनेश सागरपुर नहीं, चंदेरी था। हो सकता कवित्व शक्ति का एक अच्छा उदाहरण है। किसी की है उन्हीं का दूसरा नाम गल्हण रहा हो जिसका उल्लेख कीति का तीनों लोको के भ्रमण-श्रम से थक कर जिना इस लेख में हुआ है । लेख में तज्जन्मनो शब्द बहुत स्पष्ट यतन के बहाने स्थिर हो जाना—(कीतिजगत्रय परि- नहा है और उसे जन्मना की अपेक्षा हग्ननो म भ्रमण श्रमार्ता यस्य स्थिराजनि जिनायतनच्छलेन)) ___ स्पष्टता से पढ़ा जा सकता है। ऐसा पढने पर उसका अर्थ तथा मुक्ति लक्ष्मी का वदन विलोकने के लोलुप भी अधिक युक्त संगत 'जिसने अति हर्ष पूर्वक श्रीमद(मक्तिधियो वदन वीक्ष्ण लोलुपाभ्या) आदि ऐसे प्रयोग नेश सागर पुर में बनवाया" हो जायगा, तथा इतिहास हैं जिनसे सिद्ध होता है कि शिलाङ्कित श्लोकों की रचना विरोधी भी नहीं रहेगा , भी भापा, पिंगल ज्ञान और साहित्य में निष्णात किसी टीकमगढ़ के प्रतिष्ठित विद्वान स्व. पण्डित ठाकुरअच्छे विद्वान द्वारा की गई है। इस मूर्ति और मन्दिर के दास जी ने भी यह शिलालेख "मधुकर" में प्रकाशित निर्मातामों द्वारा अन्यत्र (वाणपुर में) सहस्रकूट जिन कराया था, पर वह लेख इस समय मुझे उपलब्ध न होने चैत्यालय निर्माण कराने के उल्लेख से भी तात्कालिक से उनकी धारणा ज्ञात नहीं की जा सकी। लेख इस इतिहास की एक कड़ी उपलब्ध होती है । अत्यन्त आदर प्रकार है - पूर्ण शब्दों में मूर्तिकार के नाम का उल्लेख तो एक ऐसी ॐ नमो वीतरागाय ॥ विशेषता है जो निश्चित ही बहुत विरल शिलालेखों में गढ़पतिवंश सरोरुह सहस्त्ररश्मि: सहन कूटं यः। पाई जाती है। वाणपुरे व्यषितासीत् श्रीमानिह देवपाल कृति ।। महार के सभी शिलालेख अर्थ सहित श्रीमान पं० श्रीरत्नपालकृति तत्तनयो वरेण्यः । गोविन्ददास जी कोठिया द्वारा पुस्तकाकार प्रकाशित पुण्यक मूतिरभवद् वसुहाटिकायाम् ॥ कराये जा चुके है। अनेकान्त वर्ष ६-१० मे भी क्रमशः कोतिर्जगत्रय परिभ्रमण श्रमार्ता। उनका प्रकाशन हुआ है, पर इस बार प्रोफेसर खुशालचन्द्र यस्य स्थिराजनि जिनायतनच्छलेन ॥॥ गोरावाला तथा विद्यार्थी नरेन्द्र जी के साथ वहां जाकर एकस्तावबनून बुद्धिनिषिना श्रोशांति चैत्यालयो-। हम लोगों ने इसे जिस प्रकार पढ़ा वह पाठ यहां दिया दृष्टयानन्द पुरे परः परनरानन्द प्रदः श्रीमता॥ दिया जाता है। इसमें पांच जगह छोटे छोटे भेद कोठिया येन श्रीमदनेशसागरपुरे तरहन्मनो निम्मिमे । जी के दिए पाठ से मिलते हैं पर तीसरे श्लोक में एक सोऽयं श्रेष्ठि वरिष्ठ गल्हण कृति श्रीरल्हणल्यावि भूत ॥३॥
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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