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________________ १२ अनेकान्तं इन मतभेदों से यह निश्चित प्रतीत होता है कि उपर्युक्त श्रावकप्रज्ञप्ति के रचयिता धाचार्य उमास्वाति वाचक नहीं हो सकते, क्योंकि, किसी एक ही प्रत्यकार के द्वारा रथे गये विविध ग्रंथों में परस्पर उक्त प्रकार के मतभेदों की सम्भावना नहीं होती । तब फिर उस श्रावकप्रज्ञप्ति का रचयिता कौन है ? यह एक प्रश्न है जिनके समाधान स्वरूप यहाँ कुछ विचार किया जाता है— उक्त श्रावकप्रज्ञप्ति की दो हस्तलिखित प्रतियां हमारे पास रही है। उनमें एक प्रति भाण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना की थी जो भवत् १५६३ में लिखी गई है। उसक आदि व अन्त में कहीं भी मूल ग्रन्थकार के नाम का निर्देश नही किया गया है । ग्रन्थ का प्रारम्भ वहाँ ||६० ॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ॥ इस वाक्य के अनन्तर हुआ है और अन्तिम पुष्यिका उसकी इस प्रकार है । इति विप्रदा नाम धावक प्रज्ञप्ति टीका ॥ समाप्ता ॥ कृतिः सितपटाचार्य जिनभद्रपादसेव कस्याचार्य हरिभद्रस्य ।। ३।। सवत् १५२३ व निखित मिदं पुन (?) वाच्यभानं मुनिवरंश्चिरं जीयात् ॥६॥ श्रीस्तात् || धी|| दूसरी प्रति ना० द० भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर अहमदाबाद की रही है। इस प्रति के भी प्रारम्भ में मूल ग्रन्थकार का नाम-निर्देश नहीं किया गया है। वहां ॥६०॥ नमः सिद्धेभ्यः ।। इस वाक्य को लिख कर ग्रन्थ का प्रारम्भ हुआ है । उसका अन्तिम पत्र नष्ट हो गया है जो सम्भवतः पीछे मुद्रित प्रति के आधार से भिन्न कागज पर नीली स्पाही में लिखाकर उसमें जोड़ दिया गया है। इससे उसके लेखनकाल आदि का परिज्ञान होना सम्भव नहीं रहा । इनमें पूर्व प्रति से यह निश्चित ज्ञात हो जाता है कि इस श्रावक प्रज्ञप्ति के ऊपर प्राचार्य हरिभद्र के द्वारा दिप्रदा नाम की टीका लिखी गई है। ये हरिभद्रसूरि वे ही हैं जिन्होंने 'समराइच्चकहा' नामक प्रसिद्ध पौराणिक कथाग्रन्थ की रचना की है। इसमें उन्होंने उज्जैन के राजा समरादित्य के नौ पूर्वभवो के चरित्र का चित्रण अतिशय काव्य कुशलता के साथ ललित भाषा में किया है यह कथा बड़ी ही रोचक है। उक्त समर इच्चकहा के अन्तर्गत प्रथम भव प्रकरण में कहा गया है कि एक दिन सितिप्रविष्टनगर में विजयमेन नाम के धाचार्य का शुभागमन हुआ। इस शुभ समाचार को सुन कर गुणसेन राजा (ममरादित्व राजा के पूर्व प्रथम भव का जीव) उनकी वंदना के लिए गया। वंदना के पश्चान् उसने विजयमेनाचार्य की रूपसम्पदा को देखकर उनसे अपने विरक्त होने का कारण पूछा । तदनुसार उन्होंने अपने विरक्त होने की कथा कह दी। इस कथा का प्रभाव राजा गुणमेन के हृदय-पट पर अंकित हुप्रा । तब उसने उनसे शाश्वत स्थान व उसके साधक उपाय के सम्बन्ध में प्रश्न किया। उसके उत्तर मे आचार्य ने परमपद (मोक्ष) को शाश्वत स्थान बतला कर उसका साधक उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र स्वरूप धर्म को बतलाया । । इस धर्म को उन्होंने गृहिधर्म और साधुधर्म के भेद से दो प्रकार का बतला कर उसकी मूल वस्तु सम्यक्त्व को निर्दिष्ट किया थ ही उन्होंने यह भी कहा कि वह सम्यक्त्व अनादि कर्म सन्तान से वे पेटत प्राणी के लिए दुर्लभ होता है । प्रागवश वहां ज्ञानावरणादि आठ कर्मों और उनकी उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति का भी वर्णन किया गया है । उक्त कर्म स्थिति के क्रमशः क्षीण होने पर जब वह एक कोटाकोड मात्र शेष रह कर उसमे भी स्तोक मात्र - पत्योपम के प्रख्यातवे भाग मात्र - क्षीण हो जाती है तब कहीं प्राणी को उस सम्यक्त्व की प्राप्ति हुआ करती है। इस प्रसग में ममराइच्चकहा मे जो गाथाएँ (७२-०८ ) उद्धृत की गई हैं वे पूर्व निर्दिष्ट श्रावक - प्रज्ञप्ति में उमी क्रम से ५३-६० गाथा सख्या से अंकित पायी जाती है। तत्पश्चात् वहाँ विजयमेनाचार्य के मुख से यह कहलाया गया है कि पूर्वोक्त उस ममं स्थिति में से जब पस्योरम के प्रख्यातवें भाग मात्र स्थिति और भी क्षोण हो जाती है तब उस सम्यग्दृष्टि जीव को देशविरति को प्राप्ति होती है। इतना निर्देन करने के पश्चात् वहां प्रतिचारों के नामोन्नेव के साथ पनि व्रत, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षावनों का वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् वहाँ यह कहा गया है कि इस अनुरूप कल्प से
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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