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________________ बांधकप्रति का रचयिता कौन? विहार करके परिणाम विशेष के माश्रय से जब पूर्वोक्त एयस्म मूलवत्थू मम्मत्तं तं च गंटिभेयम्मि। कर्मस्थिति में से उसी जन्म में प्रथवा अनेक जन्मों में भी खयउवसमाइ तिविहं सुहायपरिणामरूवं तु ॥ भी संख्यात सागरोपम मात्र स्थिति और भी क्षीण समराइच्चकहा में भी ठीक उसी प्रकार से 'एयस्स हो जाती है। तब जीव सर्वविरतिरूप यति धर्म को- पुरण दुविहस्स वि धम्मस्स मूलवत्यु सम्मत्तं' इस वाक्य के क्षमा मार्दवादिरूप दस प्रकार के धर्म को-प्राप्त करता द्वारा उम मम्यक्त्व को धावक धर्म की मूल वस्तु निर्दिष्ट है । इस प्रसंग में जो वहाँ दो गाथाएँ (८०-८१) उद्धृत किया गया है। की गई हैं वे श्रावक प्रज्ञप्ति में ३६०-६१ गाथा संख्या ३ जीव और कर्म का प्रनादि सम्बन्ध होने पर में उपलब्ध होती हैं। चंकि कर्म के क्षयोपशमादि स्वरूप उस सम्यक्त्व की अब यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य यह है कि प्रकृत संगति बनती है, अतएव जिस प्रकार श्रावक प्रज्ञप्ति में श्रावक प्रज्ञप्ति में जिस क्रम से और जिस रूप से श्रावक २३ (८ से ३०) गाथानों के द्वारा उन ज्ञानावग्णादि धर्म की विस्तार से प्ररूपणा की गई है ठीक उसी क्रम से कर्मों की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार समगइच्चकहा और उसी रूप में उसका विवेचन समराइच्चकहा में गुण- में भी पागे संक्षप में उन कमा का प्ररूपणा का गह है। यथासेन राजा के उस प्रश्न के उत्तर में प्राचार्य विजयमन के जं जीव-कम्मजोए जुज्जइ एयं प्रभो तयं पुव्वं । श्रीमुख से सक्षेप में कराया गया है। समराइच्चकहा का बोच्छं तो कमेणं पच्छा तिविहं पि सम्मत्त ॥ प्रमुख विपय न होने से वहाँ जो उस थावक धर्म की वेयणियस्स य बारस णामग्गोयाण मट्ट उ मुहत्तं । सक्षेप में प्राणा की गई वह प्रसंगोचित होने से मप्रथा सेसाण जहन्नठिई भिन्न मुहुतं विरिणद्दिट्टा ॥ योग्य है। फिर भी वहाँ जिस पद्धति से उसकी प्ररूपणा श्रा०प्र० गाथा ८ व ३० । की गई है वह श्रावक प्रज्ञप्ति की विपय वेचन पद्धति मे तं पुणो अणाइकम्मसंताणवेढियरस जंतुणो दुल्लह सर्वथा ममान है-दोनों में कुछ भी भेद नही पाया हवड ति । त च कम्म अट्टहा । तं जहा-पाणावरणिज्ज जाता है। इस समानता को स्पष्ट करने के लिए यहाँ दरिसणावणिज्ज................। सेसाणं भिण्णमुहत्तं कुछ उदाहरण दिये जाने हैं ति । (ममगडच्चकहा) १. श्रावक प्रज्ञप्ति की गाथा ६ 'पचेव अणुव्वयाई' ४ प्रागे धावकज्ञप्ति में २ गाथाओ के द्वारा आदि में जिस प्रकार श्रावक धर्म को पांच अणव्रत. नीन घण-घोलन के निमित्त में उस उत्कृष्ट कर्मस्थिति के गणव्रत और चार शिक्षाबनो के भेद से बारह प्रकार का किसी प्रकार से क्षीण होने पर अभिन्न पूर्व ग्रन्थि के होन निदिष्ट किया गया है उसी प्रकार समगइच्चकहा में भी का निर्देश किया गया है। यथाउमे बारह प्रकार का इस प्रकार से निर्दिष्ट किया गया एव टियस्स जया घसणघोलणणिमित्तो कहवि । खविया कोडाकोडी सब्बा इक्क पमुतूणं ॥३१॥ तत्थ गिहिधम्मो दुवालसविहो । त जहा पच अणुटव. तीइविय थोवमित्त वविए इत्थतम्मि जीवस्स । याई तिण्णि गुणव्वयाइ चत्तारि सिक्खावयाइ ति । हवड ह अभिन्नपुवो गंठी एवं जिणा विति ॥३२॥ २. प्रागे श्रावक प्रज्ञप्ति की गाथा ७ में श्रावक धर्म ठीक इसी प्रकार से ममगइच्चकहा में भी प्रकृन की मूल वस्तु मम्यक्त्व को बतलाया है । यथा प्ररूपणा इस प्रकार की गई है१. हम ममगइच्चकहा का छात्रोपयोगी जो प्रथम दो एव ठियस्म य इमस्म कम्मस्म प्रहपवत्त करणण जया भवात्मक मस्करण प्राप्त हुआ है उसमें पृ०४३-४४ घसरणपोलणाए कहवि एग मागरांवम कोडाकोडि मोत्तूण मे उम धावक धर्म की प्ररूपणा पाई जाती है पुस्तक सेमापोखवियानो हनि तीमे वियण थावमित्ते खनिए के प्रारम्भ के कुछ पृष्ठो के फट जाने से उसके प्रकाशन तया घणराय-दोसपरिणाम... ..........कम्मगठि स्थान मादि का परिज्ञान नहीं हो सका। हवइ । (स० कहा)
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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