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श्रीपुर, निर्वाण भक्ति और कुन्दकुन्द
डा० विद्याधर जोहरापुरकर, जावरा अनेकान्त के पिछले (फरवरी ६५) के अंक में श्रीपुर मत है । जिनप्रभ सूरि के शब्दों में (विविधतीर्थकल्प पृ० के अन्तरिक्ष पाश्नाथ के विषय में श्रीमान् नेमचंद जी १०३)-रना पडिमा अदटूण अधिईए गते तत्थेव सिरि न्यायतीर्थ का एक लेख प्रकाशित हमा है। इसमें जो बाते पुरं नाम नयरं निप्रनामोवलक्खिन निवेसिनं। अतः इस इतिहास की दृष्टि से एकदम विरुद्ध हैं उन्हें स्पष्ट करने श्रीपुर का अस्तित्व गजा एल अपरनाम श्रीपाल से पहले के लिए यह लेख लिखा जा रहा है।
का बतलाना पुराने मभी कथा लेखकों के विरुद्ध है । फिर (१) श्रीपुर में खरदूषण के समय में ही श्रीश्वनाथ
प्रश्न होता है कि क्या ये कथालेखक गलती कर रहे थे। की स्थापना हुई थी तथा एल राजा के कुछ पहले उस
यदि नहीं तो श्रीमान नेमचन्द जी ने श्रीपुर के जो पुगने मन्दिर का विध्वंस हुना होगा यह श्रीमान् नेमचन्द जी
उल्लेख बतलाये हैं उनका क्या स्पष्टीकरण है ? इस प्रश्न की कल्पना श्रीपुर के सम्बन्ध में पुराने लेखकों की जो भी
के उत्तर के लिए हमने इन उल्लेखों की छानबीन की तो कथाएं मिलती है उन सब के विरुद्ध हैं । इन सब कयानों
पता चला कि इनमें से कुछ उल्लेख इम (विदर्भ स्थित) में यह कहा गया है कि खरदूषण ने (या माली सुमाली
श्रीपुर के न होकर कर्णाटक के धारवाड जिले में स्थित के सेवक ने) स्वय प्रतिमा का अविनय न हो इसलिए
श्रीपुर (वर्तमान नाम शिरूर, सिरियर) के हैं। उसे कूप में (या सगेवर में) डाल दिया था। तथा एल (२) श्रीमान नेमचन्द जी ने जैन शिलालेखमंग्रह राजा ने कप से ही वह प्रतिमा पाई। खरदूषण के समय भा०२ पृ० ८५ के एक लेख में राजा जयमिह चालुक्य से एलराज के समय तक यदि प्रतिमा कूप में ही रही तो द्वारा इस क्षेत्र को सन् ४८८ में कुछ भूमि दान देने की उसकी स्थापना एलराज से पहले किस प्रकार हो सकती बात लिखी है। मूल लेख तथा उमका मागंश देखने पर थी? यह कप या पोखर जिम में यह प्रतिमा थी एक पता चला कि यहाँ श्रीपुर का सम्बन्ध नीं के बगबर वन में था तथा राजा एल वहाँ क्रीडा करने गया था और है। यह दान कुहुण्डी प्रदेश के अलक क नगर में बने हए प्रतिमा मिलने पर राजा ने वहाँ अपने नाम से श्रीपुर जिनमन्दिर के लिए था। यहाँ श्रीपुर का सम्बन्ध इतना नगर बसाया। इस विषय में भी पुराने कथाकारों में एक- ही है कि दान दी हुई भूमि श्रीपुर के मार्ग पर पड़ती थी।
५. श्रावक प्रज्ञप्ति मे ३२वी गाथा की टीका में दोनो ग्रन्थो में समान रूप से की गई है-उसमें कहीं कुछ प्रसंग पाकर जो "गंठित्ति सुदुन्भेमो?" मादि गाथा उद्- भी मतभेद नही है। धृत की गई है वह समराइच्चकहा मे भी इसी प्रसग मे इस प्रकार दोनों ग्रन्थों की एकरूपता को देखते हुए उद्धृत की गई है।
यह निश्चित प्रतीत होता है कि प्राचार्य हरिभद्र ने ही इसके अतिरिक्त जैसा कि ऊपर निर्देश किया जा स्वोपज्ञ टीका के साथ उसके मूल भाग की भी रचना चुका है। बीसों गाथाये दोनों ग्रन्थों में यथास्थान समान की है। रूप में उपलब्ध होती हैं२ । व्रतातिचारो की प्ररूपणा भी
उससे कुछ भिन्न रूप में पाई जाती है, परन्तु उक्त १. विशेषावश्यक भाष्य ११९५।
दोनों ग्रन्थों में सर्वथा समान होकर उपासक दशांग २. यह व्रताति चारों की प्ररूपणा तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में (अध्ययन १) का अनुसरण करती है।