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________________ मीपुर, निर्वाणभक्ति और कुन्दकुन्द वह श्रीपुर क्षेत्र को दी गई थी ऐसा लेख में कहीं नहीं के है और पाठवीं सदी की लिपि पढ़ने के लिए विशेषज्ञ कहा है। दूसरी बात यह है कि यह श्रीपुर चालुक्य राज्य विद्वान की जरूरत होती है । उक्त धातुमूर्तियों के लेख में था और उस समय चालुक्यो का राज्य सिर्फ उत्तर पाठवीं सदी के हैं या नहीं यह तो उनकी लिपि से ही कर्णाटक में था। विदर्भ में तो उस समय वाकाटक वंश के जाना जा सकता है। प्रतः सिर्फ विमलचन्द्र नाम देखकर राजामों का पासन था। जिनकी एक गजधानी वाशिम इन मूर्तियों का सम्बध उपयक्त लेख से नहीं जोडना में ही थी। वाकाटक राजामों के प्रदेश की कोई भूमि चाहिए। जैन प्राचार्यों में बहधा एक-एक नाम के कई चालुक्य राजा किस प्रकार दान कर सकते थे ? अतः प्राचार्य हुए हैं यह ध्यान में रखना होगा। उक्त लेख मे जिस श्रीपुर का थोड़ा सा सम्बन्ध है वह भी TO) ऊपर कर्णाटक के जिम श्रीपुर की चर्चा की है कर्णाटक के धारवाड़ जिले का श्रीपुर है, विदर्भ क उसकी जानकारी हमें स्व. प. प्रेमीजी के एक लेख में अकोला जिले का नहीं। मिली [जैन साहित्य और इतिहास पृ० ४६४] १३ उनका (३) यही बात जैन शिलालेखसंग्रह भा० २ पृ० कहना है कि विद्यानन्द का श्रीपुरपाश्वनाथ स्तोत्र भी १०६ के उल्लेख के सम्बन्ध मे भी है। इसमे कहा है कि इसी कर्णाटक के श्रीपुर का है। यही हमारा भी मत है: पृथिवीनिर्गन्दराज की पत्नी कुन्दाच्चि ने श्रीपुर के उत्तर यह स्तोत्र ३. श्लोकों का है लेकिन उसमें पाश्र्वनाथ के में लोकतिलक मन्दिर बनवाया तथा उसके लिए विमन- अन्तरिक्ष होने का कही उल्वेख नही है। विदर्भ के श्रीपुर चन्द्र प्राचार्य को सन् ७७६ में कुछ दान दिया। इस पाश्र्वनाथ का यह अन्तरिक्ष होने का अतिशय इतना लेख का भी विदर्भ के श्रीपुर से सम्बन्ध होना सम्भव विलक्षण है कि प्रायः सभी स्तोत्र लेखकों ने उसका बरानहीं है। क्योंकि दानदाता राजा पृथिवीनिर्गुन्द गग महा- बर उल्लेख किया है। उसका उल्लेख न होना यही मूचित राज श्रीपुरुष के सामन्त थे जिनका राज्य कर्णाटक म ही करता है कि विद्यानन्द वर्णित श्रीपुर विदर्भ का न होकर था। विदर्भ और महाराष्ट्र में उस समय राष्ट्रकट कर्णाटक का है। यह स्वाभाविक है क्योकि विद्यानन्द ने गजानों का शासन था और गग और राष्ट्रकटो में उस जिस गग राजा सत्यवाक्य के लिए तीन ग्रन्थ लिखे थे सनय शत्रुता थी। श्रीपुरुष का पुत्र शिवमार युद्ध मैं उस का राज्य विदर्भ में न होकर कर्णाटक में था। राष्ट्रकूटों द्वारा बन्दी बनाया गया था२। ऐमी स्थिति मे (५) अब निर्वाणकाण्ड के उल्लेख को देखिए । श्रीपुरुष का एक मामन्त राष्ट्रकटों के प्रदेश में कोई मन्दिर पं०प्रेमीजी ने तो इस उल्लेख को भी उपयुक्त कन्नड़ बनवा कर भूमि कैसे दान दे सकता था ? श्र.पुर का ही माना है। किन्तु इस प्रश्न का एक दूसरा अत' उक्त लेम्व में जिम श्रीपुर का उल्लेख है वह भी पहलू भी है। वह यह कि निर्वाणकाण्ड न तो श्री कुन्दकर्णाटक का ही है, विदर्भ का नही। इस लेख में जिन कुन्द की रचना है और न ही उमका समय ईसवी सन विमलचन्द्र प्राचार्य का उल्लेख है उनके गुरु कीनिणन्दि की पहली शताब्दी है । दशभक्ति की पुस्तकों में निर्वाण प्राचार्य एरेगिन्तर गण के पुलिकल गच्छ के थे। श्रीमान काण्ड भी छपा होता है और टीकाकार प्रभाचन्द्र के नेमचन्दजी लिखते हैं कि इनके कुछ लेख सिरपुर की धातु- कथनानुसार प्राकृत दशभक्ति कुन्दकुन्द की और संस्कृत मूर्तियों पर हैं । अच्छा हो यदि वे उक्त लेख प्रकाशित दशभक्ति पूज्यपाद की रचना मतलाई गई है । इसी पर में करें और बताये कि उनमें एरेगित्तूर गण, पुलिकल गच्छ श्रीमान नमचन्द जी ने तक किया होगा कि निर्वाणका या कीर्तिण न्दिगुरु का सम्बन्ध कहां तक है। किन्तु यह कुन्दकुन्दकृत है। उन्होंने इस बात की ओर ध्यान नह। संभव नहीं है क्योंकि उपयुक्त विमलचन्द्र पाटवी सदी ३. प. दरबारीलाल जी ने अन्तन्क्षि पार्श्वनाथ का । १. दि क्लासिकल एज पृ० १८५-८७ । सम्बन्ध भी गलती से इसी श्रीपुर के साथ जोड़ दिया है २. दि एज माफ इम्पीरियल कनौज पृ० १५६ । (शासनचतुस्त्रिशिका पृ०४२)
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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