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________________ अनेकान्त जाने पर भी चन्दन का वृक्ष कुठार के मुख को सुवामित की द्योतक है। उक्त विवेचन के प्राचार पर प्रस्तुत सूक्त करता है। एक अन्य सुभाषित में कहा गया है की व्याख्यानों को हम प्रमुख चार भागों में विभाजित कर 'विकचेष्टितानि परको परिशोचनीय मकते हैं :बालप्रवाल मलयाद्रिसह हस्ते। (१) वह व्यक्ति, जो विष्ठा (या किसी भी दुर्गन्धनिभिधमानहरयोऽपि महानुभावः पूर्ण पदार्थ) की दुर्गन्ध और चन्दन की सुगन्ध में उदासीन स सम्मुखं पुनरमीः सुरभी करोति ॥१ हो। (डा. जेकाबी की व्याख्या)। है परसो 'तेरी चेष्टानों को धिक्कार है। सुगन्ध के (२) रूपान्मक व्याख्या-वमले द्वारा काटे जाने पर समूह-रूप चन्दन के वृक्ष के प्रति तेरा द्रोह शोचनीय भी चन्दन उसको मुगन्धित करता है। उमी प्रकार साधक है। क्योंकि तेरे द्वारा हृदय भेदे जाने पर भी वह निर्भय अपने अपकारी का भी उपकार करता है। (लोक प्रसिद्ध महानुभाव (चन्दन) तेरे मुख को सुरभित करता है। सुभाषितों और अभय देवमूरि प्रादि टीकाकारों द्वारा दोनों सुभाषितों में चन्दन प्रालंकारिक रूप से सज्जन रवीकृत व्याख्या)। का प्रतीक है। प्रति सज्जन मनुष्य के लिये प्रचलित (३) अन्य प्रालंकारिक व्याख्या वह व्यक्ति, जो ऐसे सुभाषित पद्यों का बाहुल्य प्रान्तीय भाषाओं में भी वमूले के ममान अपकारी और चन्दन के समान उपकारी उपलब्ध होता है। 'मुन्दरविलास' के कर्ता सुन्दरदासजी के प्रति ममान भाव रखना है। (अभयदेव मरि वाग ने साधु के लक्षणों को बताते हुए लिखा है दी गई वैकल्पिक व्याख्या)। 'कोउक निवत कोउक बंदत, (४) गाब्दिक व्याख्या-वह व्यक्ति जो किसी पुरुष कोजक देतहि पाइजु भन्छन । के द्वार। वमूले से काटे जाने पर और दूसरे पुरुष के कोउक माय लगावत चन्दन । द्वारा चन्दन में लेप किये जाने पर, दोनों पर राग-द्वेष न कोउकडारत है तन तच्छन । करता हुमा ममवत्ति रखता है। (जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र कोउ कहै यह भूक्त विसत, और 'महाभारत' के मूल पाठ में दी हुई व्याख्या तथा कोजक कहे यह माहि वियच्छन । हरिभद्र मूरि, हेमचंद्राचार्य प्रादि टीकाकारों व विदवानो सुन्दर काहु से राग द्वेष न, द्वारा स्वीकृत)। ये सब जाना साधु के लच्छन ।२ इन चार्ग व्याख्यानो की तुलना करने के पश्चात् हम यहाँ चन्दन लगाने वाले और तन का लक्षण करने । असंदिग्ध रूप में इस निष्कर्ष पर पहचते है कि 'वासीवाल पर रागद्वेष-विरहित साधु माना है । चदनका' की मही व्याख्या उपयुक्त चतुर्थ व्याख्या है और 'जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्तिमूत्र', 'महाभारत' प्रादि मौलिक उपसंहार : ग्रन्थों पर प्राधारित होने से इसकी यथार्थता निर्विवाद है। अध्यात्म-प्रधान भारतीय संस्कृत में वीतराग स्थिति अर का पादर्श और उमको साधना सर्वत्र प्रतिबिम्बत होती उपयुक्त गभी व्याख्याओं का भावार्थ एक होने पर है। जैन और वैदिक वाङ्मय के आधार पर हमने देग्या भावात्किञ्चिन्-अन्नर उनमे दृष्टिगोचर होता है। है कि ममत्व की उच्च साधना में माधक जब लीन हो उसका मूल कारण सम्भवतः यह हो सकता है कि 'उत्तरा. जाता है, बाह्य काट और सुविधा को अपेक्षित कर देता ध्ययन' 'कल्प' उववाई' आदि सूत्रों में तथा हारिभद्रीय है । वासचन्दननुल्यता की माहित्यिक उक्ति इसी स्थिति अष्टक' ग्रन्थों में१ प्रस्तुत सूक्त का मक्षिप्त रूप 'वामी१. वही, पृ. ३७८, श्लोक ४८ १. हरिभद्रमरि मूल अर्थ मे सुपरिचित लगते है, इसीलिए २. सुन्दरविलास, कर्ता सुन्दरदास (वि० सं० १५५३. 'पावश्यक नियुक्ति' की व्याख्या में उन्होने इसी १७४६) प्रा. बेलवेडियर टीम प्रिंटिंग वर्म, वार्थ को मान्यता दी है; किन्तु अभयदेव मूरि इम इलाहाबाद, १९१४, २६।१२ ० १३६ मूल प्रर्थ से अपरिचिन लगते है। इसीलिए 'उपवाई
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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