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________________ अप्रावत और प्रतिसंमीनता १११ पाश्रय में स्थित रहना३ । यह विधान वर्षाजल के स्पर्श याज्ञवल्क्य स्मृति १ में स्थण्डिले शय [मैदान] में रहने से बचने के लिए किया गया। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने वर्षा- का विधान है। काल में तरुमूल में रहने का विधान किया है । इस चर्या में भी व्यवस्थामों का हेतु सिमान्त-भेद श्रुतसागर सूरि ने इसकी व्याख्या में लिखा है- है। दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में तरु-मूल और मुनि वर्षाकाल में वक्ष के नीचे रहे। वृक्ष के पत्तों पर प्रतिसं लीन रहने का भेद बहुत पाश्चर्यजनक है। उद्यान गिरकर जो जल नीचे गिरता है, वह प्रासुक [निर्जीव] प्रादि में चातुर्मास बिताने वाले मुनि सभवत' वृक्षों के हो जाता है । इसलिए मुनि जल के जीवों की विराधना नीचे ही रहते थे। जब मकानों में रहने का अधिक नहीं करता । वृक्ष के नीचे रहने से वर्षा जनित कष्ट भी प्रचलन हो गया तब प्रतिसलीन रहने को मुख्यता दी होता है। इसलिए मुनि को वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे गई। अगस्त्यासह की व्याख्या में निवात-लपन में रहने रहना चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो उससे का उल्लेख है, लयन शब्द सामान्य घर का वाचक नही उमकी कायरता प्रगट होती है। महाभारत६ और है। वह पहाड़ों को कुरेद कर बनाए गए घर के अर्थ में मनुस्मृति में सन्यासी के लिए वर्षाकाल में अनावकाश है। जिनदास और हरिभद्र ने प्राथय शब्द का प्रयोग [खुले प्राकाश में] रहने का विधान किया है और किया है। वह सामान्य घर भी हो सकता है। इस प्रकार युग-परिवर्तन के साथ-साथ तरु मूल निवात लयन और ३ दशवकालिक, पृ० १०३, टिप्पण २ माश्रय का भेद हुमा है। (क) अगस्त्य चूणिः सदा इंदियनोइंदियपरिसमल्लीणा विसेसेण सिणेहसंघट्टपरि ___इस सांवत्सरिक-चर्या का जैन परम्परा में प्राचीन उम्लेख भगवान महावीर के जीवन-प्रसंग में मिलता है। हरणत्थं रिणवातलतणगता वासासु पडिसं. इस प्रसंग में वर्षा-ऋतु की चर्या का उल्लेख नहीं है। लीणा गामाणुगामं दूतिज्जति । दशवकालिक में तीनों ऋतुओं की चर्या का उल्लेख है। (ख) जिनदास चूणि, पृ० ११६ : वसासु पडि महाभारत पौर स्मृति-ग्रन्थों में भी वार्षिक-चर्या का उल्लेख संलीणा नाम आश्रयस्थिता इत्यर्थः, तब. है। यह उस समय की स्थिति का प्रभाव था। किसी भी विसेमेसु उज्जमंती, नो गामनगराइसु सम्प्रदाय का मुनि बहुजन सम्मत चर्या को अपनाए बिना विहरंति। कैसे रह सकता था? अपनाने का प्रकार अपने ढंग का (ग) हारिभद्रीय टीका, पत्र ११६ : वर्षाकालेषु होता और अपनाने के साथ-साथ उसे अपने मिढान्तों के संलीनो इत्येकाश्रयस्था भवन्ति । अनुसार ढाल लिया जाता । ऋतु-चर्या का प्रकरण इती ४ भाव प्राभूत १११ सत्य का साक्ष्य है। ५ भाव प्राभृत १११ वृत्ति ६ महाभारत, शान्तिपर्व, १ याज्ञवल्क्य स्मृति-प्रायश्चित्ताध्याय ५८ ७ मनुस्मृति ६०३ २ प्राचाराग ।। जाता हम सब को एक सूत्र में बंध कर देश को प्रखण्डता की रक्षा का प्रयत्न करना चाहिए। तभी हमारी स्वतन्त्रता कायम रह सकती है।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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