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अप्रावृत और प्रतिसंलीनता
मुनिश्री नथमल दशवकालिक में मुनि की ऋतु-चर्या का बयान करते इसका अर्थ अनावृत स्थान में स्थिति को किया है। हुए बताया गया है कि वे ग्रीष्म ऋतु में प्रातप सेवन सम्भव है कि वस्त्रों का व्यवहार जब कम था, तब तक करते हैं, हेमन्त ऋतु में प्रपाबूत और वर्षा-ऋतु में प्रति अप्रावत का अर्थ खुला स्थान रहा होगा और जब वस्त्रों संलीन रहते हैं। इनमें पातप-सेवन का अर्थ मूर्य का का व्यवहार अधिक हो गया तब उस (अप्रावृत) का ताप सहन करना है। अग्नि का सेवन मुनि के लिए अर्थ वस्त्र-रहित हो गया। निषिद्ध है२, इसलिए प्रातप-सेवन का अर्थ सूर्य के ताप संभव है कि जब वस्त्रों का व्यवहार कम था तब को सहना ही हो सकता है । प्रप्रावृत और प्रतिसंलीन की
__ अप्रावृत का अर्थ खुला स्थान रहा होगा और जब वस्त्रों परम्परा यहाँ मीमांसनीय है । अप्रावृत अगस्त्यसिंह का व्यवहार अधिक हो गया तब उसका (अप्रावृत) का स्थविर ने प्रप्रावत का अर्थ निवात गृह रहित किया है। अर्थ वस्त्र रहित हो गया। प्राचार्य हरिभद्र ने इसका अर्थ प्रावरण रहित किया है ।
मुनि की ऋतु-चर्या का उल्लेख महाभारत व स्मृतिकिन्तु प्राचारांग और भावप्राभूत के संदर्भ में इस पर
ग्रन्थों मे भी मिलता है। महाभारत मे हेमन्त ऋतु में विचार किया जाए तो यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि अप्रा
जल मे रहने का विधान है। मनुस्मति तथा याज्ञवल्क्य वृत का अर्थ वस्त्र-रहित नहीं, खुले गृह मे स्थित होना
स्मृति में भी वस्त्र रखने का विधान है। चाहिए। भगवान महावीर शिशिर व ऋतु में अधोविकट
अप्रावत, जल-संश्रय और आर्द्र-वासा-यह अन्तर (चारों ओर दीवारों से रहित केवल ऊपर से पाच्छन्न
परम्परा-भेद के कारण हुआ है। जैन-परम्परा मे जलअर्थात् प्रप्रावृत) स्थान में स्थित होकर ध्यान करते थे।
स्पर्श निषेध था इसलिए हेमन्त ऋतु में प्रप्रावृत रहने । एक दूसरे प्रसंग में बताया गया है कि वे शिशिर-ऋतु में
विधान किया गया। छाया में ध्यान करते थे ।
पाचार्य कुन्दकुन्द ने बताया है कि मुनि शीतकाल में प्रतिसंलीनता बाहर शयन करे७ । वृत्तिकार श्रुतसागर सूरी ने अगस्त्यसिंह स्थविर जिनदास महत्तर और हरिभद्र
१ दशवकालिक ३१२। २. वही ६३४ मूरि के अनुमार प्रतिसंलीनता का अर्थ है, निवास-गह या ३ वही, पृ० १०३ टि०१क) ४ वही, पृ० १०३ टि. १(ग)
१ महाभारत शान्तिपर्व २४१ ५ प्राचारांग १२।१५
प्रभावकाशा वर्षासु, हेमन्ते जलसंश्रयाः । तंसि भगवं, अपडिन्ने प्रहे बिगड़े महीयासए ।
ग्रीष्मे च पंचतपसः। शश्वच्चाभित भोजनाः ।। दविए निक्खम्म सया राम्रो ठाइए भगवं समियाए २ मनुस्मृति ६।२३ ६ भागरांग २३
ग्रीष्मे पंचतपास्तुस्याद्वार्षास्वम्रवकाशिकः । सिसिरंमि ...या भगवं, छायाए मगहमासीय
पावासास्तु हेमन्ते क्रमशो वर्षयंस्तपः ।। ७ भाव-प्राभूत १११
याज्ञवल्क्य स्मृति, प्रायश्चित्ताध्याय ५२० बाहिर सयण तावण तरुमूलाईणिउत्तरगुणाणि । ग्रीष्मे पंचाग्निमध्यस्थो वर्षासु स्थाण्डिलेशयः । णालहि भाव विसुद्धो पूयालाहं जईहतो ।।
मावासास्तु हेमन्ते, शक्त्या वापि तपश्चरेत् ।।