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________________ अपराध और बुद्धि का पारस्परिक सम्बन्ध साध्वी श्री मंजुला अपराध-अर्थात् वे 'दूषित क्रिया परिणत मनोवृत्तियाँ दशा में सत् और असत् के बीज स्वयं में समेटे रहता है जो जिस देश, काल, समाज और परिस्थिति में निषिद्ध जो स्वानुकल निमित्तों से उभर पाते हैं। लेकिन शुद्ध व विकृत कहलाती हों। अथवा नैतिक, धार्मिक, सामाजिक, चेतना अवश्य ही स्वभावतः सम्यक् होती है। राजनैतिक और पारिवारिक सभी विधानों एवं मर्यादाओं अपराध और उसके कारणके उलंघन का नाम अपराध है। यह अपराध का व्याव- अपराध का सैद्धान्तिक या अान्तरिक कारण भले ही हारिक रूप है। इन काल्पनिक मानदण्डों के आधार पर हम कर्मावरण को कह दें लेकिन इन अनगिन मनोवैज्ञानिक अपगध की निश्चित परिभाषा नहीं दी जा सकती; इस- और व्यावहारिक कारणों से भी इन्कार नहीं हो सकते । लिए अपराध की शाश्वत व अखण्ड परिभाषा को समझने नीत्से ने कहा-"सारी बुराइयाँ आत्म-दुर्बलता से ही के लिए उसका एक सर्बाङ्गीण रूप प्रस्तुत करना होगा। उत्पन्न होती है" यह तो हमारा सैद्धान्तिक पक्ष है ही हम अपनी उन समस्त मानसिक दुर्बलतामों को अपराध लेकिन अतिरिक्त पक्ष भी अवश्य मीमांसनीय है। की कोटि में परिगणित कर सकते हैं जो जब कभी अनु- मनोविज्ञान यों न्यूनाधिक रूप से सभी कारणो को रूप सामग्री पाते ही सक्रिय हो जाएँ। मानसिक दुर्बलता अपराध का निमित्त व उत्तंजक मानता है लेकिन प्रबलतम का तात्पर्य यहाँ मनोविकृति या बुद्धि-दौर्बल्य नहीं है जैमा कारण वह कुछेक को ही मानता है। उन कारणों का कि कई मनोवैज्ञानिक मानते हैं। मनोदौर्बल्य को यहां विभाजन मनोविज्ञान इस प्रकार करता है--१. मनोप्रात्म दुर्बलता के अर्थ में ही अभिगृहीत किया गया है। वैज्ञानिक कारण, २. व्यावहारिक कारण, आर्थिक कारण अपराधों की उत्पत्ति और ४. राजनैतिक कारण । अपराधी मनोवृत्तियां जन्मजात होती हैं ऐसा कइयो मनोवैज्ञानिक कारण व्यक्ति की मूल प्रवृत्तियों, का अभिमत है। कई मानते हैं प्रारम्भ मे व्यक्ति न तो स्वाभाविक ग्रन्थियां, मानसिक संतुलन, वंशानुक्रम, वाताअच्छा ही होता है और न बुरा ही। दोनों के बीज विद्य- वरण, प्रतिनियन्त्रण, बौद्धिक झुकाव, मन की प्रास्था, मान रहते हैं। जैसे-जैसे निमित्त मिलते हैं व्यक्ति वैसा ही आदर्श विशेप का मोह, मिथ्या मान्यताएँ, दमित इच्छाएँ बन जाता है। दार्शनिक दचशिन कहता है-"मूल में तो तथा कुण्ठाएँ प्रादि आदि। शारीरिक बनावट का भी नैतिक सूझ ही हमारी स्वजात होती है। जैसे सुन्दर अपराध विशेषों से सम्बन्ध माना जाता रहा है। यद्यपि वस्तुओं के प्रति हमारा सहज आकर्षण होता है वैसे ही आज के मनोवैज्ञानिक इससे सहमत नहीं। फिर भी सत और शुभ के प्रति भी, लेकिन सामाजिक परिस्थिति ग्लुक दंपति प्रादि शरीर की विलक्षणतामों को लक्ष्य अवश्य विकृत या पावृत कर देती है" यही बात कुमारी कर लिखते हैं-"जो गठीले शरीर वाले चुस्त और ग्रीन वी ने अपनी व्यक्तित्व नामक पुस्तक में कही कि आवेशपूर्ण, बहिर्मुखी व प्राक्रमणशील होते हैं वे अपराधी "अधिकांश लोग स्वभावतः ही प्रेम, पौरुष, सौन्दर्य, होते हैं।" लम्बरोजो, हटन व शेडन प्रादि भी शारीरिक सौम्यता और सुन्दर स्वभाव को पसन्द करते हैं। बुद्धि हीनता को अपराध का कारण मानते हैं। वे कहते हैऔर मस्तिष्क को नहीं।" हो सकता है स्वभाव से ही "नीचा माथा, बिगड़े हुए कान, अन्दर धंसी हुई ठुडी, व्यक्ति के मन में अच्छाई के प्रति पाकर्षण हो लेकिन चौड़ी नाक, विलक्षण मुखाकृति ऐसी शकल अपराधियों अधिक सम्भव तो यही लगता है कि हर प्राणी कर्मावृत की होती है।" वृत्तियों की बहिमुखता पौर मात्मदुर्बलता
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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