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अपराध और बुरिका पारस्परिक सम्बन्ध
को भी मनोवैज्ञानिक कारणों के अन्तर्गत लिया गया है। यन्त्रित सवेग पादि प्रादि । इनके अनुसार जहां जहां ये ___व्यावहारिक कारण-दूषित समाज रचना (सामा- उपरोक्त कारण नहीं होते वहां अपराधो की मात्रा बहुत जिक दुर्व्यवस्था) अनुशासन का ढीलापन, स्नेहहीनता, कम होती है। उदाहरण स्वरूप शहरों की अपेक्षा गांवो मर्यादाहीनता, अतिशय नियन्त्रण, दुर्व्यवस्था, गहकलह, की सामाजिक व्यवस्था सुदृढ़, व मानसिक संतुलन पर्याप्त मृत्यु, बीमारी, नैतिक शिक्षण का प्रभाव, प्रादों का रहता है प्रतः अपराध भी वहा अपेक्षाकृत कम व्यवहारगत न होना, उपेक्षा के भाव, अवहेलना, "प्रेम, होते है । स्नेह, सुखद मैत्रीभाव व स्वस्थ मनोरंजन का प्रभाव" ये अपराध के जितने भी अनन्तर व परम्पर कारण मभी समाज विरोधी प्रवृत्तियों को जन्म देते हैं तथा प्रति बतलाए गए है वे निस्सदेह सत्यांश लिए हुए है लेकिन लाड़-प्यार, मिनेमा, रेडियो, अश्लील साहित्य, और संगीत फिर भी इन कारणों को अपराध का जनक नहीं कहा प्रादि भी अपराधों को उकसाते हैं।
जा सकता । ये अपराधो को उत्तेजित अवश्य कर सकते आर्थिक कारण-अभावग्रस्तता, अर्थ बाहुल्य, पुजी- हैं अतः अपराध का जनक कारण अपना स्वयं का पतियों की प्रतिष्ठा, गरीबों की अवहेलना आदि । इन पांतरिक प्रसंयम ही है। "छिद्रष्वनर्था बहुली भवति"
आर्थिक संकटों से चोरी, डकैती, नाजायज संग्रह, जैक के अनुसार फिर तो उस एक प्रसंयम से भोग वाद के मार्केटिग, विलासिता, सुविधाशीलता, स्वार्थपरता प्रादि प्रति झुकाव, मूल्यांकन का विपर्यास, धाराणानों की मे अपराध सहज पनप सकते हैं।
रूढता, रागात्मकता, अतिमोग, प्रतिमाह और क्रूरता राजनैतिक कारण-राजनैतिक अटि यह है कि युग प्रादि वृत्तिया उभरती है जो नाना अपराधों का रूप लेती तीव्रगति से जब परिवर्तित होता है और शासन व समाज रहती है। के नियम ज्यों के त्यों रहते है तब मनों में गड़बड़ी और स्वभावतः हर प्राणी में; पशु पोर वनस्पति तक मे विक्षेप होने लगते हैं। उससे कानून के प्रति असम्मान, भी स्वपोषण और परहनन की वृत्ति रहती है और वही निडरता को बढ़ावा, व शासनप्रणाली की सशक्तता के स्वार्थ वृत्तियां हिसक वृत्ति निमित्तानुकूल रूपान्तरों में प्रभाव में कानून भंग में वद्धि होती है। जब थोडं लोग व्यक्त होती रहती है जो विभिन्न अपराधों की अभिधा कानन भंग करके भी निर्बाध निकल जाते हैं तब दूसरों में पा लेती है। जैसा कि मुनि श्री नथमल जी के अणुव्रत वैसा दुस्साहम पैदा होता है। ऐसी राजनैतिक टियां भी दर्शन मे बताया है कि "हिमक प्रवृत्ति ही जब यथार्थ अपराधों का स्रोत खोल देती है।
पर पर्दा डालती है तो वह प्रसत्य कहलाती है। पदार्थ किसी अपराध विशेष का कोई निश्चित कारण तो संग्रह के लिए प्रयुक्त होती है तो परिग्रह; वाहना का रूप नहीं बताया जा सकता, क्योंकि भिन्न भिन्न परिस्थितियों लेती है तो अब्रह्मचर्य और परवस्तु हरण में प्रवृत्त होती में भिन्न भिन्न कारण बनते रहते है। फिर भी मभी है तो चोरी कहलाती है। सत्य ; हिसा का नैतिक कारणों के मूल में मनोदौर्बल्य अनिवार्य रूप में निहित पहल है। अपरिग्रह तथा प्रचोयं और ब्रह्मचर्य उमी के होता है। मनोदौर्बल्य के तीन पक्ष है । ज्ञानात्मक, सामाजिक पहल है" इससे स्पष्ट फलित है कि मारे भावात्मक और क्रियात्मक । मनोवैज्ञानिको ने एक अपराध इस एक ही हिसक वृत्ति के नाना रूपान्तर व जानात्मक पक्ष को छोड़कर शेष दोनों पक्षों की दुर्बलता उभार हैं तो सारे 'सत्' एक ही पहिसा-परिवार के को अपराध का प्रमुख कारण माना है।
सदस्य हैं। माज के मनोविश्लेपण वादियों के अनुसार मानसिक समस्त अपराधों का समाधान व्यक्ति का अपना दुर्बलता के ये कतिपय कारण हैं-संघर्प, अतृप्त इच्छाएं, आन्तरिक सयम ही है । उसके बिना 'प्रभाव में संग्रहवृत्ति निरोध, दमन, सुरक्षा व मात्म सम्मान का घात, मानसिक जन्य दोष पनपते है और 'भाव' में विलाम जन्य दुचरित्रो अस्थिरता, प्रचेतन-प्रेरणा तथा अपरिपक्व या अनि- की मात्रा बढ़ती है। प्रभाव प्रादि बाह्य परिस्थिति ही