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________________ प्रनेकान्त प्रवास करके 'तीर्थावली' में ७५ दिगम्बर जैन क्षेत्रों का थी। इस समय भ० गमकीर्ति भी थे। वे जयमाल में वर्णन किया है। उसमें इस क्षेत्र का उल्लेख है कहते हैं'श्रीपुर नगर प्रसिद्ध देश दक्षिण सुसिद्ध सह । 'श्रीपुर नगर सुहामणो, पार्श्वनाथ भगवंत । महिमावंत वमत अन्तरिक्ष जिन पासह । प्रभुपद वंदन कीजिए, धन धन स्वामी श्रीसंत ॥ देश देशमा संघ नित नित बहुतर पावे। आदि । पूजा स्तवन करेवि, मन वाछित बहु पावै ॥ जेष्ठे सुमासे नरनारी पूजा करिती, चिंतामणी उग्रवंशी। सकल लोक मन मानता, परता पूजे जिनपति । गरीर नीलं धनधान्यपूर्ति, पुत्रं कलत्रं ब्रह्महर्ष चित्ती॥ अन्तरिक्ष जिन वंदिये, कहत ज्ञान सागरयति ।। (३१) भ० गुणकीर्ति (१५वी सदी)-ये मूलसंघ [सन्मति से मंगृहीत] बलात्कारगण के भट्टारक थे। इन्होंने 'धर्मामन' इस मराठी [२८] अर्जुन सुत यमासा [सं० १७६० से १८२०] गद्य ग्रंथ में चतुर्थकाल से प्रसिद्ध ऐसे अनेक क्षेत्र को वंदन कारंजा सेनगणके भ. शांतिसेन [सं० १८०८ से १७१६] किया है। उसमें श्रीपुर पाश्र्व को भी वदन हैका समाधिमरण अं० पा० श्रीपुरमें हमा तब यमासा ने 'श्रीपुर नगरी अतिशयवंतु, श्रीपार्श्वनाथु अन्तरिक्षु । यह भारति गाई थी न्या देवासि नमस्कार माझा । (पृष्ठ ७४) 'बार बार बलिहार प्रारति, करूं तुम्हारी राजाजी। (३२) ब्रह्म जिनदास (मं०१४५४ से १५३०) ये भ. प्रगड प्रगडधूं, धुडधडाधड, तीडभीड झडा गबाजाजी ॥ सकलकोति के शिष्य थे। इनका साहित्य हिन्दी, गुजराती सरसर सर्नाट परन्तु, कडकड फड कड काजी। और मराठी में भी पाया जाता है। वे गिरपुर जब पधारे रिगरिग रिगरिग ताल गर्जलो, प्रणहतबीण बजावेजी॥ थे, तब यहाँ की प्रचलित भाषा में एक भारति गायी थी। कारंजा श्रीपुर बिचये छाया अजब छबिलाजी। जिसका मान प्राचीन मराठी साहित्य में शुद्धता की दृष्टि निराकार निर्धूत निरंजन पाई सब घट नोलेजी ॥ मे ऊँचा ही है। पीर बादशा बल्लीलला, बारबार रंगीलाजी। देखो-'जाईन मी शिरपूरा, मज लगल छन् । बारबार बलिहार...॥१॥ घरणि वेगला हो, माहे पाश्वजिनंद ॥धृ०॥ अजर अमरपद, प्रधरप्रसनधर, निराधार प्रभु बैठेजी। मत्यफणि मंडप, नया लंछनी नाग । बड़े बड़े ब्रह्मांड काल पर, मारे चक्र चपेटाजी ॥२॥ शिरपुरी अन्तरिक्ष आहे पासु जिनंद ॥१॥पादि। चन्द्रमरज बिन ज्योति जगाऊं, कोटि सुरज उजियालाजी। (३३) कवीन्द्रसेवक (मं० १६२५)-इन्होंने विदर्भ बिन धरती तुज प्रारति, गाऊं जपू जाप जयमालाजी॥ में रहकर एक अभंग-संग्रह रचा है । वह हिराचन्द नेमचंद सोलपुर वालों ने प्रकाशित किया है। उसमें ११वें [२६] भ. सकलकोति शिष्य दास 'विहारी' इस मं० पारसनाथ को वंदना करते हुए परिच्छेद में क्रमांक २०७, तथा २११वे अभंग में अन्त रिक्ष प्रभु को वंदन है। देखोवंदना जकड़ी (२०७)-'पदमासनी अन्तरिक्ष, तेथे जडले हे लक्ष । 'अन्तरिक्ष पारस मन ध्याउं, राम गिरि शांति नाथोजी ।। लक्ष अलक्षी मिलले, ध्यानपुर चिता माले २ तथा तीर्थ वंदना प्रभारूप पाहोनिया, वाटे कवलवे पाया ।३ आदि 'मन्तरिक्ष पारस मन बंदु, राम-टेक शांतिनाथजी। (२११)-अंतरिक्ष दाता देतां, मल काय उणे प्रातां ।। [३०] ब्रह्म श्रीहर्षजी [सं० १८५० से १९५०] देव जिनेन्द्र तोषवी, कृपा हाताने पालवी ।२ यह ईडर शाखा के भ० रामकीति तथा कारंजा के माझे हाली घेतो सेवा, मुख्य बलोकिचा बापा ।३ सेनगण भ० लक्ष्मीसेन के शिष्य थे। इनका वास बहुत मादि। समय तक सिरपुर में था। स. १५५१ जेष्ठ वदी १० को इसके अलावा इन्होंने एक 'सुमति प्रकाश' ग्रंथ लिखा इन्होंने भंडार गिना और संस्थान के पौलकरों की झड़ती है। उसकी एक हस्तलिखित प्रति श्रीलालचंद जिनदास
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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