SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२० भनेकान्त धारण करके लोगों को खेल दिखाकर प्राजीविका चलाना जाता था ।६६ शवर की स्त्री को शवरी कहते थे। शवर था।६१ नटों के पेशे का एक पद्य में सम्पूर्ण चित्र खींचा परिवार गरीब होते थे। ठण्ड मादि से बचने के लिए गया है। नट के खेल में जोर जोर से बाजा बजाया जाता उनके पास पर्याप्त वस्त्र आदि नहीं होते थे। सोमदेव ने था (मानकनिनदरम्यः) । स्त्रियां गीत गाती थीं लिखा है कि ठण्ड में प्रातःकाल शिशु को निश्चेष्ट देखकर (गीतकान्तः) नट आभूषण पहने होता था, खास कर शवरी उसे पिलाने के लिए हाथ में फलों का रस लिए गले का हार (हाराभिरामः) और जोर जोर से नर्तन उसे मरा हा समझकर रोती है।६७ करता था। (प्रोतालानर्तनोतिनंट, २२८ उत्त०)। २०-किरात (३२०, उत्त०) १८-चाण्डाल (२५४, ४५७) किरात भी एक जंगली जाति थी। इसका मुख्य पेशा एक उपमा में चाण्डाल का उल्लेख है। सफेद केश शिकार था। यशस्तिलक में सम्राट यशोधर जब शिकार को चाण्डाल के दण्ड (डण्ड) की उपमा दी गयी है।६२ के लिए गये तब उसके साथ अनेक किरात शिकार के एक स्थान पर कहा गया है कि वर्णाश्रम, जाति, कुल विविध उपकरण लेकर साथ में जाते है।६८ प्रादि की व्यवस्था तो व्यवहार से होती है, वास्तव में राजा के लिए जैसा विप्र वैसा चाण्डाल ।६३ २१-वनेचर (५६) बनेचर शब्द से ही यह स्पष्ट कि यह जंगली जाति इसी प्रमंग में 'माल' शब्द का उल्लेख है : श्रुसदेव __थी। किरातार्जुनीय में वनेचर का उल्लेख पाया ने उसका अर्थ चाण्डल किया है ।६४ चाण्डाल अछत। माना जाता था और समाज में उसका प्रत्यन्त निम्न स्थान था। सोमदेव ने चाण्डाल का स्पर्श हो जाने पर २२-मातंग (३२७, उत्त०) मन्त्र जपने का उल्लेख किया है ।६५ यह भी एक जंगली जाति थी। यशस्तिलक से ज्ञात १६-शबर (२८१, उत्त०, ६०) होता कि विध्याटवी में मातंगों की बस्तियो थी। इनमें शवर एक जंगली जाति थी इसे भी अस्पश्य माना मद्य-मांस का प्रयोग बहुत था। अकेला प्रादमी मिल जाने पर ये उसे भी मद्य-मांस पिला-खिला देते थे ।७० ६१. शैलपयोषिदिव ससृतिरेनमेपा, नानाविडम्बयति नित्तकरैः प्रपंचैः । नानावेपः, पृ०६६१, स० टी० ६६. वहीं : ६२. चण्डालदण्ड, इव पृ० २५४ ६७. प्राष्टिम्भविचेष्टितुण्डकलनान्नीहारकालागमे, ६३. वर्णाश्रमजातिकुलस्थितिरेपा देव संवृत्ते न्या। हस्तन्यस्तफलद्रवा च शबरी वाष्पानुरं गेदनि परमार्थतश्चनृपते को विप्रः कश्च चाण्डालः ।। ६८. अनणुकोणोत्कणितपाणिभिः किरात परिवृत्त: पृ० ४५७ पृ० २२० ६४. प्रकृतिशुचिर्मालमध्येऽपि, भालमध्ये पि-चाण्डाल पाण्डाल-६६. स. वणिलिगिः विदित. समाययो, युधिष्ठर वैतवने मध्येऽपि, प० ४५७ सं० टी० __ वनेतरः, १११ ६५. चाण्डालशवरादिभिः, प्राप्लुत्य दण्डवत् सम्यग्जपेन्मन्त्र- ७०. विन्ध्याटवीविपये--मातगेरूपवध्य ...... उक्तः मुपोपितः पृ० २८१, उत्त. पृ० ३२७ उत्त
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy