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________________ अहार का शान्तिनाथ संग्रहालय श्री नीरज जैन दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र प्रहार मध्य प्रदेश के प्राप्त हुपा है। कहा जाता है कि पाणाशाह ने इस प्रतिष्ठा टीकमगढ़ जिले में, टीकमगढ से १५ मील दूर है। इस के मेले पर एक विशाल पंक्तिभोज दिया था उसकी क्षेत्र को उत्तुग, सौम्य और सुन्दर शान्तिनाथ प्रतिमा के विशालता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि विषय में अनेकान्त की गत किरण मे माप पढ़ चुके है। उस भोज में एक एक चुटकी परोसने के लिए भी बावन मन्दिर से लग कर बने हुए एक भवन में शान्तिनाथ मन मिरच पिमवानी पड़ी थी। संग्रहालय के नाम से पुरातत्त्व का एक मम्मन्न संग्रहालय इस विशाल जिन बिम्न की तरह इसकी यह प्रतिष्ठा स्थित है। उसी का परिचय मैं इस लेख में प्रस्तुत कर भी विशाल तो थी ही लगभग माखिरी भी थी। इसके रहा हूँ। उपरान्त पचास वर्ष तक यहाँ किसी नवीन स्थापना के मध्ययुग के अन्तिम भाग (तेरहवी-चौदहवीं शताब्दी) साक्ष्य नहीं मिलते। सतत् १२८८, १३२० और १३३२ मे यह स्थान अपने उत्कर्ष की सीमा पर रहा है । अमफेर के जो एकाध अवशेष मिले है वे अपनी ह्रासोन्मुख कला मे बिखरे अवशेषों तथा संग्रहालय में एकत्रित खण्डित के कारण इस स्थान के उत्कर्ष की नही अपकर्ष की कहानी प्रतिमानों तथा कला खण्डों से इस क्षेत्र की तात्कालिक कहते है । बाद मे तो उत्तरोत्तर यह स्थान नष्ट, विलुप्त सम्पन्नता का परिचय मिलता है। यहाँ एकत्रित अधिकाश और धीहीन होकर एक दिन विस्मृति के गर्भ में लगभग मूर्तियों पर तिथि संवत सहित शिलालेख पाये जाने है। विलीन हो गया। प्राज से चालीस पचास वर्ष पूर्व इस क्षेत्र अब तक मौ से अधिक ऐसे लेख पढ़े जा चके है। इन का जीर्णोद्धार और पुनर्प्रतिष्ठा जिस प्रकार प्रारम्भ हुई लेखों की मामग्री से इतिहास के अनेक सन्दों पर प्राभा- उमकी कथा गताक में आप पढ़ चुके है। विक प्रकाश पड़ता है। विक्रम सवत ११२३ से लेकर कुछ ममय पूर्व इस स्थान के आस-पास सैकड़ो मूतिआज तक की तिथियों के ये शिलालेख बताते है कि कला- खण्ड यत्र तत्र बिम्बरे हुए थे। कला के पारखी और प्रेमी चन्देल गजानों की परम सास्कृतिक छत्रच्छाया में भविष्य द्रष्टा दो विद्वानो, सर्वश्री पण्डित बनारसीदास इस क्षेत्र का उद्भव और विकास हुआ । मूर्ति-प्रतिष्ठा का चतुर्वेदी और बाबू यशपाल का ध्यान इस बिखरे खजाने मिलमिला तो यहाँ बारहवी शताब्दी के प्रथम चरण की ओर गया और उनके परिश्रम और लगन से अहार में (११२३) मे प्रारम्भ हो गया था; पर तेरहवी शताब्दी श्री गातिनाथ मग्रहालय की स्थापना हुई। प्रमश. बढ़तेका पूर्वाद्धं इस क्षेत्र का स्वर्णकाल कहा जान योग्य है। बढ़ते प्राज अपने शानदार भवन में स्थित लगभग पांच इस काल मे मवत् १२०२, ३, ६, ७, ६, १०, ११, १२, मौ कला खण्डों का यह संग्रहालय दर्शनीय हो गया है। १३, १४, १६, १८, २३, २५, २८ और ३० की प्रतिष्टित यहाँ जो सामग्री एकत्रित है उममे द्वाग्नोरण, पद्मासन अनेक मूर्तियां मिली है। तथा खड्गामन तीर्थकर मूर्तियों, शामन यक्ष, शासन विक्रम संवत् १२३७ में तो भगवान शातिनाथ की देवियां, इन्द्र, प्रमग, गन्धर्व और किन्नर बालानों के उस विशाल और चमत्कारिक प्रतिमा की यहाँ प्रतिष्ठा ननित रूप तथा भौति भांति के सिहासन, प्रभामण्डल, हुई थी जिमके चुम्बकीय आकर्षण के कारण इस स्थान वेदिका आदि जैन मूनिकला के प्रायः सभी पायाम उपको ' उनर भारत का गोम्मटेश्वर" कहलाने का अधिकार लब्ध है । इन अवशेषों मे भारतीय कला की सम्पन्नता
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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