________________
२२२
अनेकान्त
में जैन संस्कृति के योगदान पर तो पर्याप्त प्रकाश पडता जिसमें शरीर की प्राकर्षक त्रिभंग मुद्रा का प्रदर्शन करते ही है, बुन्देलखण्ड के मौन और गौण तक्षक की दक्षता हुए मुख-भंगिमा को भी तदनुरूप चित्रित किया गया है। मोर साधना का भी ज्वलन्त उदाहरण इनमें प्राप्त होता दूसरी मूर्ति का शीष भाग भी खंडित है और पांव भी है। कला का संग्रहालय, वैसे तो देखने की चीज होता है। प्राधे टूटे हुए हैं, पर इस प्रप्सरा के शरीर का लोच, शब्दों में उसका सौन्दर्य बांधकर प्रस्तुत करना असम्भव नृत्य की उसकी अत्यन्त श्रमसाध्य मुद्रा और सुदृढ तथा होता है, फिर भी कुछेक विशिष्ट कलाखण्डों का विवरण सृडौल अंगों पर सुन्दर अलंकारों को शोभा देखते ही यहाँ दिया जा रहा है।
बनती है। इसी प्रकार एक मस्तक विदीन यक्ष प्रतिमा १. तोरण
भी अपने गले और कटि भाग के सुन्दर तथा बारीक सफेद बलुवा पत्थर का यह सुन्दर खण्डावशेप किसी अलंकरण के कारण प्रांखों में बस जाती है। बडी वेदिका का ऊपरी भाग है। इसके तक्षण में बड़ी ४. सिंहासनबारीक और सधी हई छेनी का योगदान रहा है। दोनो सिंहपीठ और शासन देवियों से अलंकृत अनेक मोर मकरमुखी मज्जा के बीच तीन तीन तीर्थकर तथा सिंहासन इस संग्रहालय में हैं पर यहाँ केवल दो का मध्य में भी तीन तीर्थकर हैं। ऊपर गन्धर्वगण को वादित्र उल्लेख करना है। हल्के भूरे रंग के सलेटी पत्थर का एक बजाते और नृत्यमग्न बताया गया है तथा बीच बीच में
सिंहासन लडवारी के जैन मन्दिर में सन् १९६२ में मैंने
सामन: कमलनाल को घमाकर पुष्पाकृति अंकित किया गया है। देखा था जो बाद में मेरी विनय पर वहाँ के लोगों ने इस इसी आकृति को काट-काटकर इस भाग को जाली का रूप संग्रहालय को भेंट कर दिया है। इसमें एक विशेष दे दिया गया है। चमत्कार की सीमा को छुती हुई इस कलात्मकता तो है ही पार्श्व में खड़ी हई शासन देवी ने तोरण की कलागत विशेषताएं दर्शनीय है और मनोहर इसे भव्यता प्रदान की है। गोलाइयों में तथा फूल-पत्तियों की सुकुमारता में दर्शक दूसरे जिस सिंहासन का उल्लेख मैं करने जा रहा है की दृष्टि को बाँध लेने की अद्भुत क्षमता है।
वह सचमुच अद्वितीय है। सिह युगल के ऊपर प्रासन की २. सरस्वती
रचना ही मिहासन की परम्परा है और यही उसके नाम चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर की शामन देवी का व्युत्पत्ति अर्थ भी है, पर इस विशेष सिंहासन में नीचे सिद्धायिका या सरस्वती की यह चतुर्भूजी प्रतिमा ललित सिंहों का स्थान दो मदमाते हाथियों ने ले रखा है। इम प्रासन विराजमान अत्यन्त मनोहर है । एक हाथ में पुष्प- नाते इसे गजासन कहना अधिक उपयुक्त होगा। इन गुच्छक दूसरे में ताडपत्र का ग्रन्थ है। तीसग हाथ खंडित हाथियों के शरीर की रचना से शक्ति और वेग का स्पष्ट है तथा चौथे में कलश अकित है। इस देवी के प्राभरण प्राभास मिलता है। और अलंकार विशेष रूप मे दर्शनीय हैं। इनमें रत्नमकट, मैं तो इसे इन्द्र का अथवा इन्द्राणी का प्रासन मान शीया फूल, कुण्डल और हथफूल अपनी विशिष्ट बुन्देल- लेता पर इममें बीचोबीच अन्तिम तीर्थकर भगवान महाबण्डीय चटक-मटक के साथ अंकित किये गए है । मूर्ति के वीर की शासन मेविका सिद्धायिनी देवी अपने हाथों में मुख पर देवता सुलभ गौरव और मारल्य का प्रकन करने कमल, कलश और ग्रन्थ महित अपनी समस्त गरिमा ने में कलाकार सफल रहा है ।
मण्डित ललित प्रासन में विराजमान हैं। सम्भव है भगवान ३. अप्सराएं
महावीर के लिए परम्परा से हटकर इस प्रासन का निर्माण नृत्यमग्ना प्रासगों के अनेक रूप इस संग्रहालय में करते समय कलाकार के अंतस् में कहीं गूंज रहा होदेखने को मिलते है पर उनमें दो को भुलाना प्रासान नहीं यद, भावेन प्रमुदित मना दर्दुर इह है। एक तो केवल कटि भाग के ऊपर का ही हिस्सा है क्षणादासीत्सर्गी गुण गण समृद्धः सुखनिधिः ।