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कारजा के भट्टारक लक्षमीसेन
डा० विद्याधर जोहरापुरकर, मंडला
हमारे संग्रह के छोटे छोटे हस्तलिखित पत्रों का वर्ष फिर पट्ट खाली रहा । इस परम्परा के अन्तिम भट्टारक अध्ययन करते समय कारंजा के भट्टारक लक्ष्मीसेन के बीरसेन स्वामी स. १६३६ से १९६५ तक पट्टाधीश पट्टाभिषेक के विषय में एक कविता हमें प्राप्त हुई। इसमें रहे थे। कुछ जानकारी नई प्रतीत होने से इस कविता का मूल
__"मूल कविता" पाठ यहाँ दे रहे हैं। इस मराठी रचना में पांच पद्य है
लक्ष्मीसेन गुरु झाले कारंजे पटी। और प्रत्येक पद्य में पाठ पक्तियां है। लेखक का नाम
मुलसंघ पुष्करगच्छाचे माहेत प्रषिपति ॥५०॥ मालूम नहीं हो सका।
अजमेर नगराहुन माले रत्लभूषण स्वामी। इसके दूसरे पद्य में कारंजा के भट्टारकों की परम्परा
भट्टारक देवेंकीति मेटि घेउनी॥ के सात प्राचार्यों के नाम दिये हैं-सोमसेन, जिनसेन,
माषकहनि सन्मान केला प्रानन्ये मनी। समंतभद्र, छत्रसेन, नरेन्द्रसेन, शांतिमुनि (शांतिसेन), तथा
गादीवर बसले किसे किसे चम्न सूर्य योनी॥ सिद्धसेन फिर कहा है कि सिद्धसेन बावन वर्ष तक पट्ट और अंसे मेहसमान। का उपभोग कर दिवंगत हुए। उनके बाद दस वर्ष तक।
गम्भीर जैसे सिषुत जान। पट्ट खाली रहा तब दिलसुख और पुतलासा नामक सज्जनों
क्षमा ऐसी पवि प्रमाण । ने विचार कर के नये भट्टारक के रूप में लक्ष्मीसेन को
मानाचा भंडार ज्याचे गुण व किती ॥१॥ चुना। तीसरे पद्य के अनुसार इनका पट्टाभिषेक शक
सोमसेन जिनसेन भट्टारक समंतभद्र। १७५४ की वैशाख शु०६, मंगलवार को हुआ। पहले छत्रसेन नखसेन शातिमुनि जान ॥ पद्य मे कहा गया है कि अजमेर से रत्नभूषण स्वामी समकालीगह अवतरले सिरसेन स्वामी। कारंजा पाये थे तथा उन्होंने भट्टारक देवेन्द्रकीति से भेट सावन वर्ष पट भोगोनि झाले निर्वाणी ॥ की थी । लक्ष्मीसेन के पट्टाभिषेक में इन दोनों ने मूरिमत्र बस वर्ष गादी सुनी जान। देकर नये भट्टारक को पदासीन किया था यह भी तीसरे विचार केला दिलसुख पुतलासान । पद्य से ज्ञात होता है। पांचव पद्य में लक्ष्मीसेन द्वारा पठित माघ सूद प्रयोदशि दिसे सेनीजान । ग्रन्थों में त्रैलोक्यसार तथा गोमटसार का उल्लेख किया महाराजा ज्ञान पाहनी मन झाले तपती ॥२॥ है तथा उनके तत्त्वज्ञान की केवलज्ञान से ममानता बत- देशोदेशीचे लोक यंती पट्टालागोमी। लाई है। पट्टाभिषेक के बाद विहार के लिए उन्हें ग्वीला. श्रावक धाविका मुनि अजिका चतुरसय मिलोनि ॥ पुर का निमंत्रण मिला था। पुरानी परम्परा के अनुमार शक सत्रासे चउपन वैशाख शुद्ध नवमी। वे जिनकांची और पिनगडि के सिंहासनों के भी स्वामी भौमवासरे पंचमघटिके महतं पाहुनी॥ कहलाते थे।
क्षीरसागर नीर प्रानुनी। कारंजा में प्राप्त में ममाधिलेख के अनुसार लक्ष्मीमेन पंच मष्टि लोच करोनी। का स्वर्गवास मंवत् १९२२ (शक १७८७) में हुमा था। सरिमंत्र देतिल भट्टारक बोनी। इस प्रकार वे तेतीस वर्ष पट्टाधीश रहे । उनके बाद तेरह अष्टोत्तर से कलस हाती घेउन डालती ॥३॥