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________________ साहित्य में अंतरिक्ष पार्श्वनाथ श्रीपुर पं० नेमचन्द धन्नुसा जैन, न्यायतीर्थ (१) श्री शासन चतुस्त्रिशिका :-१२वीं सदी के था। इसी इतिहास को पुष्ट करने वाला यह श्लोक उत्तरार्धमें होने वाले श्री मुनि मदनकीतिजी ने श्रीपुर है : पार्श्वनाथ की वंदना की थी। तब उन्होंने इसकी महिमा 'इति विशद विदेहः क्षेत्रतीर्थ सुनाम्ना। चित्रित की है कि-ग्राकाश में एक छोटा-सा पत्ता भी स्मरण जनित रागस्तेन पुण्य प्रभावात् । एक क्षणभर के लिए अधर नहीं रह सकता पर श्री कवि जगति (वि)मोहध्वात विध्वंसनेनः पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा अंतरिक्ष में स्थित है यह लघुयति यतिमान: वादिराजो यतीन्दुः । श्रीपुर में देखकर किसको आश्चर्य नहीं होगा? यह (३) एक प्राचीन हस्तलिखित प्रति में यह काव्य दिगम्बर शासन का जय-जयकार है। देखिए मिलता है । इससे श्रीपद्मप्रभदेवके जीवन पर अच्छा प्रकाश 'पत्रं यत्र विहायसि प्रविपुले म्यातुक्षणं न क्षम, पड़ता है, कि वे श्री अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ का मंदिर बांधते तत्रास्ते गुणरत्नरोहणगिर्योि देवदेवो महान् । समय धीपूर में अवश्य उपस्थित होंगे, और उनके हि हाथ चित्रं नाम करोति कस्य मनसो दृष्टःपुरे श्रीपुरे, से उस मूर्ति की स्थापना हुई होगी। वे श्लेक इस प्रकार स श्रीपार्वजिनेश्वगे विजयते दिग्वाससा शासनम् ॥ है :-'अथ श्री प्रतिष्ठाणपुरे, मुनि सुव्रतं वंदितात्मा (२) कारंजा, सेनगणमन्दिर के पुराणे पोथी में प्राप्तो देवगिरिसुसंथानं इ (मि) लोरसमि (मी)यं अंतरिक्ष पार्श्वनाथ पूजा अष्टक जयमाल के अंत में यह वरम् ॥४॥ श्लोक पाया है । इससे श्री वादिराज मुनि के जीवन पर आगताना जनानां वा (5) आग्रहान्नुप वांछया । शि पडता है, उन्होंने इस पावन क्षत्र का स्मरण अस्माच्छी श्रीपुर, गत्वा, श्रीपाद पूज्य खेश्वरम् ॥६॥ करके उसके पुण्य प्रभाव से अपनः शरीर विशद (निमल) विवादी भूतवाद हि त्यक्त्वा श्रीजिनालयम् । -निरोग किया था। और कवि जगमें मोहतमका नाश- नूतनं विरचय्यासो, दक्षिणापथगाम्य भूत् ॥६॥ कर प्रभू बने थे। याने उस समय किसी काव्य की रचना इससे ज्ञात होता है कि, श्री पद्मप्रभदेव को देवगिरि उन्होंने की थी। एक बात मब जानते है कि, श्रीवादिराज से श्रीपुर बुलाया गया था। उन्होंने वहां जाकर रखेश्वर गनि ने एकीभाव स्तोत्र की रचना कर अपना कुष्ट दूर (अंतरिक्ष प्रभ) के श्रीपाद की पूजा की थी। और गाव भगाया था, तथा शरीर स्वर्ण समान कांतिमान किया के बाहर का विवादिभूत मंदिर को छोड़कर प्रतिमा जहा प्रमविदान नाम विले लक्ष्मीसेन स्वामी। नानायी हे खानि जैसे प्रमत रस वानी। जिनमुद्रा घेउनी बंदिले पार्बनाय स्वामी। भव्यजन हसती जैसे चंद्र चकोरानी॥ गादीवर बसले कि जैसे गणधर महामुनि । प्रैलोक्यसार गोमटसार प्राइकिले श्रवणी। श्रावक धाविका नमोस्तु करिती प्रवधे मिलोनी।। तत्वातत्त्व विचारुनि पाहे केवल सन्मानी। मुनि धर्मवृद्धि देती। मामंत्रण दिले खोलापुर जान । देशोदेशिचे नजरा होती। जिनकंचि पिनगुडि सिंहासन । कोणि एक शास्त्रदान करती। त्याचे गृह प्रधिपति रमासेन । वाद्याचा हा गजर ऐकुनि गुण वणू मी किती ॥४ सेवक अज्ञानी कर जोडोनी करितो विनंति ॥४
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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