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________________ साहित्य में अंतरिक्ष पार्वनाम श्रीपुर २२५ स्थित हई थी वहां ही (गांवमें) प्रतिमा के ऊपर नया मेष्ठिः । ते सभा संहारपुज्या-सम्यक हारेण पूज्या, सं+हार मंदिर बंधवाया था। इव वृत्ताकारा पूज्या, वृषभा-वृषणे धर्मेण भाति इति (४) पार्श्वनाथ स्तवन-अंतरिक्ष पार्श्वनाथ के वृषभा, सभा-समवशरणं इत्यर्थः । तदवस्थायां मत्रागमणे प्रतिष्ठा समय या पद्मप्रभदेव वहां जब पहुंचे तब उन्होने रामगिरी-मात्मारामस्य गिरी समवशरणे, हे पारर्णफणे'लक्ष्मीमहानुल्य मती मती सनी इस स्तोत्र से स्तवन घरणीन्द्र, गिरोगिरी-गिरा+यो गिरोः देवदुन्दुभिः दिव्य. किया था। उसमें वे कहते है ध्वनिश्च इति द्विनादः अभवत् । 'पाश्चर्यमाचं मुमना मना मना, यत्सर्वदेशो भुवि ना विना विना । प्रात, रौद्र परिणामों से रहित या धर्मध्यान मे सहित समस्त विज्ञानमयो मयो मयो, जीवों को प्रथवा सर्वज्ञ को न मानने वालों के लिए यह पार्श्व-फणे, रामगिरी गिगै गिगे। पहला पाश्चर्य है कि प्रापका सब प्रदेश (परमौदारिक मंरक्षितो दिग्भुवने वनं ऽवनं, शरीर या महामूर्ति) यक्षेन्द्र के बिना भी जमीन पर नहीं विराजितो येपु दिवं दिवं दिवः । है याने अन्तरिक्ष में है। अथवा देश याने प्रादेश त्रिभुवन पादद्वये नृत मुराः सुगः सुराः, के स्वामी ऐसे आपके मिवाय भू पर नहीं है, याने जैनेन्द्र पार्वफणे रामगिरी गिरी गिरी॥७॥ मुद्राकित रहना आदि मत्य शामन प्रापका ही है। अथवा रराज नित्यं मकलं कल कलं, देश याने उपदेश गणधरदेव के बिना नहीं हो सकता। ममारतृष्णोऽवजिनो जिनो जिनो। प्राप सर्वज्ञ है तथा अन्तरंग बहिरंग दोनों श्रीलक्ष्मी से संहार पूज्यं वृषभा सभा सभा, सहित हैं | पाप अन्तरिक्ष में खरदूषण प्रादि विद्याधरों पार्वफणे गमगिगै गिगै गिगे। ७॥ के द्वारा, उद्यान में-यक्षेन्द्रादि के द्वाग तथा ग्राम में मुनि या राजा आदि के द्वाग सरक्षित और विराजित है। टीका-मुमना:-प्रातंरोदरहितमनाः शोभनचिन: वा, प्रापके पादद्वय के स्तुति करने वाले देव हों या मनुष्य सुख मनामना:-मनान् यत् (ये) सर्वज्ञान् न मन्यमानाः, नेषां प्रति को पाते है। यहाँ एक बात जरूर ध्यान में लेना चाहिए इदं माद्य प्रथमं पाश्चर्य, यत् ते (तव) सर्वदेश-प्रदेशः कि साक्षात जिनेन्द्र भगवान ममवशरण में किसी के द्वारा अविना (यक्षण) विना मपि भुवि नाथवा देश:-प्रादेशः संरक्षित या विगजित नहीं रहते है। अतः यहाँ श्रीपाश्व अविना (स्वामिना) ते विना भुवि ना, (पुरुषः) प्रधानीक प्रभु की यह अन्तरिक्ष प्रतिमा कहाँ और किसके द्वारा पुरुष । कस्यापि अन्यत् प्रादेशः न, इति भावार्थः) अथवा संरक्षित और विराजित हई इमी का ही यह स्पष्ट विवरण देश:-उपदेशः अविनागणधरदेवेन-विना भुवि ना। यतः है ऐसा मानने में बाश नहीं पाती ॥७॥ जब पाप जिन इदं समस्तविज्ञानमयः, मयोमयः-समस्तलावण्यकान्ति याने प्रात्माराम बनकर यहाँ पाये थे, तब पापके सौभाग्यादिभिः शोभितश्च ॥२॥] (मात्माराम के) गिरी याने समवशरण में गिरा और प्रो दिग्भुवने-अन्तरिक्षे, वने-उद्याने, कानने वा, अवने- (ओं) कार ऐसी दो ध्वनि होती थी। याने देव दुन्दुभि ग्रामे, जले वा त्वं मंरक्षितः, येषु (यत्र) दिवे -खरदूपण बजाते थे या देव, मनुष्य और तिर्यच वाणी के द्वारा गुणविद्याधरादिभिः, दिवः-यक्षेन्द्राभिः, दिवा+ऐ-दिनचारिभि गान करते थे और प्राप्त ओंकार ध्वनि के द्वारा उपदेश मुनीन्द्रादिभिः विराजितः । तव पादद्वये नुत-स्तोत सुग देते थे। सुराः-देवमनुष्यादयः मुरा:-सुष्ठु राजन्ते रमन्ते इति वा ॥३॥ इस तरह श्री पद्मनन्दी के शिष्य इन पमप्रभदेव ने त्वं, नित्यं मकलाकलाकलां-सम्पूर्णवस्थाकान्तिमध्ये श्रीपाश्वं प्रभु की स्तुति कर धरणीन्द्र को सचेत किया रराज, त्वं ममारतृष्ण:-प्रकामतृष्ण., अवृजिनः-निष्पाप., मोर उसके द्वारा उस प्रतिमाजी का पूरा इतिहास जात जिन:-जितेन्द्रिय., जिन:-त्रयोदशगुणस्थानतिन, महत्पर- कर प्रतिमाजी के ऊपर ही गांव में मन्दिर बंधवाया होगा।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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