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________________ २२६ अनेकान्त (५) सिद्धान्त चक्रवति श्रीनेमिचन्द्राचार्यकृत-प्रतिष्ठा श्री अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ ही हो सकते है। ऐसा मानने में तिलक में श्री अन्तरिक्ष प्रभु का उल्लेख इस तरह कोई बाधा नहीं रहती। क्योंकि निर्वाणभक्ति के रचना मिलता है समय किसी भी मान्यता के अनुसार 'अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ मों अचान्तरिक्षो विहरविनोद, बनेषु पश्यन्सुजनोपसर्गम् । क्षेत्र का उद्धार हा ही था। प्रत:-'पासं सिरपुरि नुबन्बहभानु सखोंऽतरिक्षश्चूर्ण निशामाषजमावदातु ॥२७ वंदमि, होलागिरि शंख देवम्मि ।' यहां श्रीपुर के अन्तरिक्ष (६) श्रीपूर पार्श्वनाथ स्तोत्र-इसे नवमी सदी के पार्श्वनाथ को ही वंदन किया है। विद्वान विद्यानन्दी को रचना न मान कर खिलजी अला- ८. तीर्थ वन्दना:-निर्वाणभक्ति के समान ही श्री उद्दीन के समकालीन (संवत् १३४६ से १३७१) के उदयकीतिजी ने अपभ्रंश भाषामें यह रचना की है, काल विद्यानन्दी की रचना मानें तो, यह स्तुति श्री अन्तरिक्ष अनिर्णीत है। उसमें यह उल्लेख हैपाश्वनाथ को ही लक्ष्य कर की गई है इसमें सन्देह नहीं करकंडराय निम्मिय उ, भेउ, हउं वंदउ अग्गलदेव देउ। रहता । क्योंकि अन्तरिक्ष प्रभु की स्थापना इनके तीन . । अरु वंदउ शिरपुरपासनाह, जो अन्तरिक्ख थिउ णाणलाहु ।' शतक पूर्व ही होती है। हां, दक्षिण भारत में अन्य श्रीपुर वन्यः स्तुत्यो महान्स्त्वं, विभुरसि जगतामेक एवाप्तनाथ ॥ ६. भट्टारक ज्ञानभूषण (सं० १५३४.४२) में देव, धीपुरपाश्र्वनाथ, भुवनाधीशार्यपादाम्बुज... ॥१४॥ बलात्कारगरण ईडर शाखा के भ० भुवनकीर्ति के उत्तराजय जय जगतीनत, श्रीपद, श्रीपुरनिलयः॥२८॥ प्रादि धिकारी थे। इनके अष्टक जयमाल में इस क्षेत्र का उल्लेख है। अतः ये प्रत्यक्ष श्रीपुर पधारे होंगे ऐसा लगता है। हे पार्श्व प्रभो ! जो आपके श्रीपाद की भक्ति करेगा। देखो।वह श्रीपुर का प्राश्रय लेगा ही। इसमे दो अर्थ हैं-श्रीपुर जयमाल :को प्राये बिना श्रीपाद ऐसे पार्श्व प्रभु की भक्ति नहीं हो सकती, या श्रीपाद श्रीपद के भक्ति से श्रीपुर सिद्धिस्थान काशी देश वाराणसी नगरं, अश्वसेन सुत पाश्र्वजिनेशं । को पावेगा। क्योंकि आप श्रीपूर पाश्वनाथ हैं, श्रीपद हैं श्रीपुर स्वामी अन्तसुरिक्षं, वंदे अतिशय क्षेत्र पवित्रम ॥२॥ और श्रीपुर ही स्थान है जिनका ऐसे है। आदि । १०. महिपाल (सं० १५३४)-यह भ० ज्ञानभूषण प्रसिद्ध जरूर होगा पर वहां प्रसिद्धि-प्राप्त पार्श्वनाथ नहीं का तथा भ० ज्ञानकीति का भी शिष्य था। भ० ज्ञानसिद्ध होते, या श्रीपार्श्वनाथ से ही प्रसिद्ध ऐसा वह श्रीपुर कीति बलात्कार गण भानपुर शाखा के भट्टारक थे। इनके नहीं जान पड़ता। जैमाकि विद्यानन्दी ने इस स्तोत्र में साथ महिपाल विदर्भ में प्राये तो, इधर ही रमे । महिपाल कहा है ने अन्तरिक्ष पाश्र्वनाथ अष्टक, जयमाल, स्तुति, पारत्यादि यः श्रीपादं तवेश, श्रयति सपदि सः श्रीपुरं संश्रयेत । तथा पद्मावतीदेवी का पूजन साहित्य भरपूर निर्माण किया है। कहीं कहीं इनका उल्लेख महिपत-महिपति के नाम स्वामिन पाश्र्वप्रभो, त्वत्प्रवचन वचनोद्दीप्र-वीप-प्रभावः॥ लकवा मार्ग निरस्ताखिलविपदमतो. यत्यमोश सपोभिः । से भी होता है। देवो अष्टक७. निर्वाणभक्ति :-डॉ० जोहरापुर करके कथना "सिंधुगंगसुसार सुन्दर रत्न जडित भंगारकं, नुसार इसकी रचना राजा ईल श्रीपाल (१०सदी) के बाद वारि भरिकरिहेमकुम्भ सुश्रीपदद्वय धारकं । की ही मानें तो, निर्वाणभक्तिमें उद्धृत 'थीपुर पाश्वनाथ' नगर श्रीपुरसिद्ध राजत पार्श्वनाथ जिनेश्वर, १. प्रतिष्ठा तिलक के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती अन्तरिक्ष नाम सत्यं सत्य श्री जगदीश्वरम् ॥ जलम् ॥ नहीं थे। यह कोई विद्वान भट्टारक हैं। जो गोम्मट- जयमालसार के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती से भिन्न हैं। 'स्वस्ति श्री जिनराज को, सुन्दर धरियो ध्यान । -सम्पादक श्रीपुर नग्र के बीच में, अन्तरिक्ष तुम नाम ॥१॥
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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